________________
सागर
[ ३४३ ]
पूर्वक तीन उपवास करने चाहिये। इसी प्रकार अट्ठारह दो इन्द्रिय, बारह तेइन्द्रिय, नौ चौइन्द्रिय जीवोंके घात का प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास समझना चाहिये । यह जघन्य प्रायश्चित है ।
यति किसी सुमि
एकेन्द्रिय जीवोंका, नब्बे दोइन्द्रिय जीवोंका वा साठ तेइन्द्रिय जीवोंका वा पैंतालीस चतुरिन्द्रिय जीवोंका वध हो जाय तो अलग-अलग एक-एक पंचकल्याणक करना चाहिये। यह उत्कृष्ट प्रायश्चित्त है। अन्य आचार्योंके मतमें पंचकल्याणक छः आवश्यक और प्रतिक्रमण सहित पंचकल्याणक समझना चाहिये । सो ही लिखा है-मूलगुणावि दुविहा समणाणं चेवयाणं च । उत्तरगुण तहेव यन्ते हिंसोहिं पच्चखामि ॥ ए इंदियाय काओ दो इंदिय गणणाय जीव चउइंदी ।
एकाउसग्गेय तथा वारस छह उच्चट्ट तिहकमणं ॥ छत्तीसारसवारस यहि छट्ठपरिकमणं । सिदि सयण उदिद्दि सट्ठियण दाल एहि मूलगुणं ॥ यदि नौ प्राणोंको धारण करनेवाले असैनी पंचेन्द्रिय जोवका वध हो जाय तो अलग-अलग आठ प्रकारके मुनियोंको अलग-अलग प्रायश्चित्त होता है। सो ही लिखा है
पंचेदिय असणीए बधकरणे चैव मूलगुणमन्तो । थिर अथिर पयदचारी अपदोई दरा ए ॥
अर्थ- मूलगुणके भेद चार, उत्तरगुणके भेद चार, स्थिर मूलगुण चारित्रवारी १, अस्थिर मूलगुण चारित्रवारी २, प्रयत्नचारित्र मूलगुणधारी ३, अप्रयत्नचारित्र मूलगुणधारी ४। ये हो चार भेद उत्तरगुणधारियोंके समझने चाहिये। इन सबके जुदा-जुदा प्रायश्चित होता है । यथा-स्थिर मूलगुण चारित्रमालेको प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास करना चाहिये । अस्थिर मूलगुण चारित्रवालेको प्रतिक्ररण पूर्वक एक पंचकल्याre, प्रयत्तचारित्र मूलगुण चारित्रवालेको प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास और अप्रयत्त मूलगुणवालेको प्रतिक्रमण पूर्थक एक पंचकल्याणक प्रयत्न चारित्र मूलगुणचारित्र वालेको प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास और अप्रयत्नचारित्र मूलगुणवाको प्रतिक्रमण पूर्वक एक लघुकल्याणक करना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्रमसे ऊपर कहा हुआ प्रायश्चित उत्तर गुणवालोंका जानना चाहिये। यह प्रायश्चित्त एक पंचेन्द्रिय असेनी जीवके वत्र होनेका है।
[