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पर्यासागर
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एवाचक है। 'हाँ' यह बीज उपाध्यायका वाचक है और 'ह' यह बीज सर्व साधुका वाचक है। इस प्रकार है ये पांचों बीजाक्षर पंच परमेष्ठी वाचक हैं। इनमें होंकार सिपरमेष्ठोका वाचक बतलाया है। इसीलिये | ओंकारके पीछे ह्रींकार लिखा है । सो हो लिखा है
ॐ ह्रां ह्रीं हू ह्रौं हः असि आ इ सा नमः' तथा 'ॐ ह्रां णमो अरहताणं' 'ॐहीं णमो सिद्धाणं' 'ओं , यो मामि हौं णमो उपज्ज्ञायाणं' 'ॐ ह्रः गमो लोए सम्म साहूणं' इन मन्त्रोंमें ह्रीं शब्द सिखवाचक लिखा है।
यह ह्रींकार वर्ण हकारादिक अक्षरोंसे बना है। सो इसका नामोच्चारण करने में भी कोशके अनुसार वेवपना सिद्ध होता है और वह इस प्रकार होता है। मातृका निघंटु शास्त्र, मन्त्रशास्त्र आविमें हकारको व्योमबोज का आकाशबीज संज्ञा लिखी है। उसके नीचे जो रकार है उसको अग्निसंज्ञा बतलाई है। तथा चौथा स्वर जो ईकार हे उसको देवोंका ईश्वर संजक बीज बतलाया है। और अनुस्वारको आकाश रूप कहा है। सो ऐसी शक्तिरूपी रकार सब देवोंका ईश्वररूपो ईकार और आकाशरूपो बिदुको यह शक्ति है। ही इस बीजाक्षरमें बड़ा हो देवपना है, यही सिद्धचक्रका मूल बीजाक्षर है। 'है' इसमें ह्रीं ऐसा पाठ नहीं है तो भी रेफ आदि अक्षरोंसे एक ही समझना चाहिये। व्याकरणमें लिखा है। "छिन्नकर्णः लांगूलः न श्वा' जिसके कान कट गये हैं ऐसा लंगूर कुत्ता नहीं हो सकता किंतु लंगूर हो रहता है । अथवा 'एकवेशविकृतमनन्यवत्' जिसका एक देश विकृत हो जाता है वह अन्य नहीं हो जाता किंतु वही रहता है। इस न्यायसे 'ही' तया । 'ह' दोनोंमें कुछ भेद नहीं है। लिखा भी है 'उधिोरयतं सविदु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्ठितम्' । इसका विशेष वर्णन ज्ञानार्णव आदिशास्त्रोंसे जान लेना चाहिये।
हकार अक्षरका अर्थ व्याकरणके अनुसार हिंसा भी होता है। तथा रकार अक्षर दुष्टके संबोधनके अर्थमें आता है । यहाँ पर दुष्ट आठ कर्म हैं उनको जो हरण करे वह ह है। ऐसा सब देवोंका स्वामी वा प्रभु होता है। तथा यह अर्थ ईश्वरवाचक ईकारके साथ लेना चाहिए । इस प्रकार ह्रीं शब्द बन जाता है । जो फोको जीतकर देवाधिवेव रूप हों तथा व्योम जो आकाश तत्व बिन्दुकर सहित हों ऐसे लोकाग्रनिवासी सिद्ध । परमेष्ठी ह्रीं के वाच्य होते हैं अर्थात् इस प्रकार सिद्धपरमेष्ठीका वाचक ह्रीं शम्न सिद्ध होता है।