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महापुराणे उत्तरपुराणम् निविंशशब्दः खडेषु विश्वाशित्वं हुताशने । तापकत्वं खराभीपौ मारकत्वं यमाह्वये ॥२३॥ धर्मों जैनेन्द्र एवास्मिन् दिवसे वा दिवाकरः । ततो नैकान्तवादानामुलकानामिवोद्गमः ॥ २३ ॥ दुर्गाण्यासन् यथास्थानं सातत्येनानुसंस्थितैः। भूतानि यन्त्रशस्त्राम्बुपवसैन्धवरक्षकैः ॥ २४ ॥ तस्य मध्ये शुभस्थाने ललाटे वा विशेषकम् । विशेषैः सर्वरम्याणां श्रीपुरं 'बामरं पुरम् ॥२५॥ विकसनीलनीरेजसरोजालिविलोचनैः । स्वच्छवारिसरोवक्त्रैर्हसत्परपुरश्रियम् ।। २६ ॥ नानाप्रसूनसुस्वादकेसरासवपायिनः । तत्रालिनोलिनीवृन्दैः प्रयान्यापानकोत्सवम् ॥ २७ ॥ तदुत्तामहासौधगेहै: समुरजारवैः । विश्राम्यन्तु भवन्तोऽत्रेत्याइयद्वा धनाधनान् ॥ २८॥ तदेव सर्ववस्तूनामाकरीभूतमन्यथा । तानि निष्ठां न किं यान्ति तथा भोगैनिरन्तरम् ॥ २९॥ यद्यदालोक्यते तत्तत्स्ववग्रीणेषु ससमम् । भान्तिः स्वर्गोऽयमेवेति करोति मरुतामपि ॥३०॥ सत्कुलेषु समुद्भतास्तत्र सर्वेऽपि सव्रताः । उत्पद्यन्ते यतः प्रेत्य स्वर्गजाः शुखाष्टयः॥३१॥ स्वर्गः किमीडशो वेति तत्रस्थाश्चारुदर्शनाः । मुक्त्यर्थमेव कुर्वन्ति धर्म न स्वर्गमेधया ॥३२॥ तत्रोत्सवे जनाः पूजां मङ्गलार्थ प्रकुर्वते । शोके तदपनोदार्यमेते जैनी विवेकिनः ॥ ३३॥ साध्यार्था इव साध्यन्ते जैनवादैः सहेतुभिः । धर्मार्थकामास्तजातैरमेयसुखदायिनः ॥ ३४ ॥
नहीं-करता नहीं थी। रुकावट केवल पुलोंमें ही थी वहांके मनुष्योंमें किसी प्रकारकी रुकावट नहीं थी। और अपवाद यदि था तो व्याकरण शास्त्र में ही था वहांके मनुष्योंमें अपवाद-अपयश नहीं था ॥२१ ।। निस्त्रिंश शब्द कृपाणमें ही आता था अर्थात कृपाण ही ( त्रिंशद्भ्योऽङ्गुलिभ्यो निर्गत इति निस्त्रिंशः) तीस अङ्गलसे बड़ी रहती थी. वहांके मनुष्योंमें निखिंश-क्रर शब्दका प्रयोग नहीं होता था। विश्वाशित्व अर्थात् सब चीजें खा जाना यह शब्द अनिमें ही था वहांके मनुष्यों में विश्वाशित्व-सर्वभक्षकपना नहीं था। तापकत्व अर्थात् संताप देना केवल सूर्यमें था वहांके मनुष्योंमें नहीं था, और मारकत्व केवल यमराजके नामोमें था वहांके मनुष्योंमें नहीं था ।। २२ ॥ जिस प्रकार सूर्य दिनमें ही रहता है उसी प्रकार धर्म शब्द केवल जिनेन्द्र प्रणीत धर्ममें ही रहता था। यही कारण था कि वहाँ पर उल्लुओंके समान एकान्त वादोंका उद्गम नहीं था । २३ ।। उस देशमें सदा यथास्थान रखे हुए यन्त्र, शस्त्र, जल, जौ, घोड़े और रक्षकोंसे भरे हुए किले थे ॥ २४ ॥ जिस प्रकार ललाटके बीचमें तिलक होता है उसी प्रकार अनेक शुभस्थानोंसे युक्त उस देशके मध्यमें श्रीपुर नामका नगर है। वह श्रीपुर नगर अपनी सब तरहकी मनोहर वस्तुओंसे देवनगरके समान जान पड़ता था॥ २५ ॥ खिले हुए नीले तथा लाल कमलोंके समूह ही जिनके नेत्र हैं ऐसे स्वच्छ जलसे भरे हुए सरोवररूपी मुखोंके द्वारा वह नगर शत्रुनगरोंकी शोभाकी मानो हँसी ही उड़ाता था ॥२६ ।। उस देशमें अनेक प्रकारके फूलोंके स्वादिष्ट केशरके रसको पीनेवाले भौंरे भ्रमरियोंके समूहके साथ पान-गोष्ठीका आनन्द प्राप्त करते थे ॥ २७ ॥ उस नगरमें बड़े-बड़े ऊँचे पक्के भवन बने हुए थे, उनमें मृदङ्गोंका शब्द हो रहा था। जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो 'आप लोग यहाँ विश्राम कीजिये' इस प्रकार वह नगर मेघोंको ही बुला रहा था ॥ २८ ॥ ऐसा मालूम होता था कि वह नगर सर्व वस्तुओंका मानो खान था। यदि ऐसा न होता तो निरन्तर उपभोगमें आने पर वे समाप्त क्यों नहीं होती ? ।। २६ ।। उस नगर में जो जो वस्तु दिखाई देती थी वह अपने वर्गमें सर्वश्रेष्ठ रहती थी अतः देवोंको भी भ्रम हो जाता था कि क्या यह स्वर्ग ही है ? ॥३०॥ वहांके रहने वाले सभी लोग उत्तम कुलोंमें उत्पन्न हुए थे, व्रतसहित थे तथा सम्यग्दृष्टि थे अतः वहांके मरे हुए जीव स्वर्गमें ही उत्पन्न होते थे ॥ ३१ ॥ ‘स्वर्गमें क्या रक्खा ? वह तो ऐसा ही है। यह सोच कर वहांके सम्यग्दृष्टि मनुष्य मोक्षके लिए ही धर्म करते थे, स्वर्गकी इच्छासे नहीं ॥ ३२ ॥ उस नगरमें विवेकी मनुष्य उत्सवके समय मङ्गलके लिए और शोकके समय उसे दूर करनेके लिए जिनेन्द्र भगवानकी पूजा किया करते थे ॥ ३३ ॥ वहांके जैनवादी लोग अपरिमित सुख देनेवाले धर्म, अर्थ
१ श्रामरं वा देवनगरवत् । २ सुव्रताः क०,०।
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