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अष्टषष्ट पर्व
३१५ प्रेषिताः खचराधीशा: प्राच्या सर्वाश्च देवताः । इयन्तं कालमस्माभिर्भवत्पुण्यबलोदयात् ॥ ५२५ ॥ त्वयाभिलषितं कार्य साधितं पुण्यसंक्षये। समर्था नेत्यसावुक्तो व्यक्तं ताभिर्दशाननः ॥ ५२६ ॥ भवतीभिर्वराकीभिर्यात कि सम साध्यते । हन्म्यहं पौरुषेणैव नृमृगान् सह खेचरान् ॥ ५२७ ॥ सहायैः साधितं कार्य लजायै ननु मानिनाम् । इति ऋद्धः पुरीमागात्तदैवासौ सहेन्द्रजित् ॥ ५२८ ॥ दुश्चेष्टस्यास्तपुण्यस्य' भूतं भावि विनश्यति । परिवारमुखाद् ज्ञात्वा परेलकोपरोधनम् ॥ ५२९ ।। हरिणैर्हरिरारुद्धः पश्य कालविपर्ययम् । अथ वासन्ममृत्यूनां भवेत्प्रकृतिविधमः ॥ ५३० ॥ इति गर्जन्समाक्रान्ततुङ्गमातङ्गसिंहवत् । रविकीर्ति स्वसेनान्यं हरिणध्वजमादिशत् ॥ ५३१ ॥ युद्धायास्फाल्यतां भेरी शत्रुपक्षक्षयावहा । इत्यादिष्टस्तदैवासौ तथा कृत्वाखिलं बलम् ॥ ५३२॥ कालान्ते कालदूतो वा सहसैकीचकार तत् । अथ निर्गत्य लङ्काया विभक्तनिजसाधनः ॥ ५३३ ।। सुकुम्भेन निकुम्भेन कुम्भकर्णेन चापरैः। सहजैरिन्द्रजिन्मुख्येनेन्द्राख्येनेन्द्रकीर्तिना ॥ ५३४ ॥ इन्द्रवर्माभिधानेन तनुजैरपरैरपि । महामुखातिकायाख्य दुर्मुखाख्यैर्महाबलैः ॥ ५३५ ॥ खरदूषणधूमाख्यप्रमुखैश्च खगेश्वरैः । "इव क्रूरग्रहै स्वादाधः परिवारितः ॥ ५३६ ॥ त्रिजगद्मसनालोलकाललीलां विडम्बयन् । न तौ मम पुरः स्थातुं समर्थों रामलक्ष्मणौ ॥ ५३७ ॥ तिष्ठतः शशगोमाय किं पुनः संहतो हरेः। अरावणं भवेदद्य जगदेतत्सतोस्तयोः ॥ ५३८।।
सहावश्यमहं ताभ्यां पालयामि महीं नहि । इत्याद्यतर्कितायातनिजामङ्गलमालपन् ॥ ५३९ ॥ पुण्योदयसे इतने समय तक आपका वान्छित कार्य किया परन्तु अब आपका पुण्य क्षीण हो गया है इसलिए आपके कहे अनुसार कार्य करनेमें हम समर्थ नहीं हैं। जब उक्त विद्या-देवताओंने रावणसे इस प्रकार स्पष्ट कह दिया तब रावण उनसे कहने लगा कि आप लोग जा सकती हैं, आप नीच देवता हैं, आपसे मेरा कौन-सा कार्य सिद्ध होनेवाला है ? मैं अपने पुरुषार्थसे ही इन मनुष्य रूपी हरिणोंको विद्याधरोंके साथ-साथ अभी मार डालता हूं ॥ ५१६-५२७ ॥ सहायकोंके द्वारा सिद्ध किया हुआ कार्य अभिमानी मनुष्योंके लिए लज्जा उत्पन्न करता है। इस प्रकार क्रुद्ध होकर रावण उसी समय इन्द्रजित्के साथ नगरमें आ गया। देखो, जिसका पुण्य नष्ट हो चुकता है ऐसे दुश्चरित्र मनुष्यका भूत और भावी सब नष्ट हो जाता है। नगरमें आनेपर उसने परिवारके लोगोंसे ज्ञात किया कि शत्रओंने लङ्काको घेर लिया है। ५२८-५२६ ॥ उस समय रावण कहने लगा कि समयकी विपरीतता तो देखो, हरिणोंने सिंहको घेर लिया है। अथवा जिनकी मृत्यु निकट आ जाती है उनके स्वभावमें विभ्रम हो जाता है ।। ५३०।। इस प्रकार किसी ऊँचे हाथी पर आक्रमण करनेवाले सिंहके समान गरजते हुए रावणने हरिणकी ध्वजा धारण करनेवाले अपनी रविकीर्ति नामक सेनापतिको आदेश दिया ॥५३१॥ कि युद्धके लिए शत्रुपक्षका क्षय करनेवालीभेरी बजादो। उसने उसी प्रकार रणभरी बजा दी ओर कल्पकालके अन्तमें यमराजके दतके समान अपनी समस्त सेना इकट्ठी की। तदनन्तर सेनाका अलग-अलग विभाग कर रावण लङ्कासे बाहर निकला ।। ५३२-५३३ ॥ उस समय वह सुकुम्भ, निकुम्भ, कुम्भकर्ण तथा अन्य भाइयोंमें सबसे मुख्य इन्द्रजित्, इन्द्रकीर्ति, इन्द्रवर्मा तथा अन्य राजपुत्रोंसे एवं महाबलवान् महामुख, अतिकाय, दुर्मुख, खरदूषण और धूम आदि प्रमुख विद्याधरोंसे घिरा हुआ था अतः दुष्ट प्रहोंसे घिरे हुए ग्रीष्म ऋतुके सूर्यके समान जान पड़ता था और तीनों जगत्को प्रसनेके लिए सतृष्ण यमराजकी लीलाको विडम्बित कर रहा था । वह कह रहा था कि राम और लक्ष्मण मेरे सामने खड़ा होनेके लिए समर्थ नहीं हैं। अरे, बहुतसे खरगोश और शृगाल इकट्ठे हो जायें तो क्या वे सिंहके सामने खड़े रहे सकते हैं ? आज उनके जीते जी यह संसार रावणसे रहित भले ही हो जाय परन्तु मैं उनके साथ इस पृथिवीका पालन कदापि नहीं करूंगा। इस प्रकार अतर्कित रूपसे उपस्थित अपनेअमजालको
१ दुश्चेष्टस्याप्तपुण्यस्य ल । २ च नश्यति ल । ३ कार्याक्कः ख०,००, म० । कामार्कः ग० । ४ इति ग०।
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