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महापुराणे उत्तरपुराणम् सा लक्ष्मीः सकलामराचिंतपदाम्भोजो ययाय विभु
स्तत्कौमारममेयरूपविभवं कन्या च सातिस्तुतिः । धीमान्सर्वमिदं जरसणसम मत्वाग्रहीत्संयम
धरां केन न धर्मचक्रमभितो नेमीश्वरो नेमिताम् ॥ २७८ ॥
पृथ्वी सुभानुरभवत्ततः प्रथमकल्पजोऽस्माच्च्युतः
खगाधिपतिरन्वतोऽजनि चतुर्थकल्पेऽमरः । वणोडजनि शङ्खवागनु सुरो महाशुक्रज
स्ततोऽपि नवमो बलोऽनु दिविजस्ततस्तीर्थकृत् ॥ २७९ ॥
प्रहर्षिणी प्रागासीदमृतरसायनस्तृतीये
श्वभ्रेऽभूदनु भववारिधौ भ्रमित्वा । भूयोऽभूनहपतिरत्र यक्षनामा
निर्नामा नृपतिसुतस्ततोऽमृताशीः ॥२०॥
वसन्ततिलका तस्मादभून्मुररिपुः कृतदुनिंदाना
चक्रेश्वरो हतविरुद्धजरादिसन्धः । धर्मोद्भवादनुभवन् बहुदुःखमस्मा
निर्गस्य तीर्थकृदनर्थविघातकृत्सः ॥ २८१ ॥ द्रोहान्मुनेः 'पलपचः स कुधीरधोऽगा
सदीज एव तपसाऽऽप्य च चक्रिलक्ष्मीम् ।
नाथ भगवानका जीव पहले चिन्तागति विद्याधर हुआ, फिर चतुर्थ स्वर्गमें देव हुआ, वहाँ से आकर अपराजित राजा हुआ, फिर अच्युत स्वर्गका इन्द्र हुआ, वहाँ से आकर सुप्रतिष्ठ राजा हुआ, फिर जयन्त विमानमें अहमिन्द्र हुआ और उसके बाद इसी जम्बूद्वीपमें महान् वैभवको धारण करनेवाला, हरिवंशरूपी आकाशका निर्मल चन्द्रमास्वरूप नेमिनाथ तीर्थकर हुआ। २७७ ।। यद्यपि भगवान् नेमिनाथकी वह लक्ष्मी थी कि जिसके द्वारा उनके चरणकमलोंकी समस्त देव पूजा करते थे, उनकी वह कुमारावस्था थी कि जिसका सौन्दर्यरूपी ऐश्वर्य अपरिमित था, और वह कन्या राजीमति थी कि जिसकी अत्यन्त स्तुति हो रही थी तथापि इन बुद्धिमान भगवान्ने इन सबको जीर्ण तृणके समान छोड़कर संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा क्या कारण है कि जिससे भगवान् नेमिनाथ धर्मचक्रके चारों ओर नेमिपनाको-चक्रधारापनाको धारण न करें ? ।। २७८ ॥ बलदेवका जीव पहले सुभानु हुआ था, फिर पहले स्वर्गमें देव हुआ, वहाँ से च्युत होकर विद्याधरोंका राजा हुआ, फिर चतुर्थ स्वर्गमें देव हुआ, इसके बाद शङ्ख नामका सेठ हुआ, फिर महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ, किर नौवाँ बलभद्र हुआ, उसके बाद देव हुआ, और फिर तीर्थकर होगा ॥२७६ ॥ कृष्णका जीव पहले अमृतरसायन हुआ, फिर तीसरे नरकमें गया, उसके बाद संसार-सागरमें बहुत भारी भ्रमण कर यक्ष नामका गृहस्थ हुआ फिर निर्नामा नामका राजपुत्र हुआ, उसके बाद देव हुआ और उसके पश्चात् बुरा निदान करनेके कारण अपने शत्रु जरासन्धको मारनेवाला, चक्ररनका स्वामी कृष्ण नामका नारायण हुआ, इसके बाद प्रथम नरकमें उत्पन्न होनेके कारण बहुत दुःखोंका अनुभव कर रहा है और अन्त में वहाँसे निकलकर समस्त अनर्थोंका विघात करनेवाला तीर्थकर होगा ॥२८०-२८१॥
१ मांसपचनः चाण्डाला।
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