Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 676
________________ ६४८ अरति ८. स्त्री ९. चर्या १०. निषद्या ११. शय्या १२. माक्रोश १३. बघ १४. याज्या १५. अलाभ १६. रोग १७. तृणस्पर्श १८. मल १९. सत्कार पुरस्कार २०. प्रज्ञा २१. अज्ञान और २२. अदशंन ये बाईस परीषह है। ६२।१९१ द्वादश समा-तीर्थंकरके समयशरणमें उनको गन्धकुटीको घेरकर बारह कोष्ठ होते हैं। देव, देवियां तथा मनुष्य बैठते हैं। एक कोष्ठ में तिर्यञ्च भी बैठते है। ये बारह कोष्ठ ही बारह सभाएं कहलाती है। ४८०४९ द्वितीय शुक्लध्यान-एकत्व वितक नामका शुक्लध्यान । यह बारहवें गुणस्यानम होता उत्तरपुराणम् ९. एषण-अन्न जल शुद्धि ये नो पुण्य कहलाते हैं। मुनिको आहार देने के लिए इनकी अनिवार्यता है ५४१२१८ नान्दीश्वरी पूजा-आष्टाह्निक पूजा, यह पूजा कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़के अन्तिम आठ दिनों में की जाती है। ६३१२५८ नाम्नोऽन्स्य-नामकर्म के ९३ भेदोंमें अन्तिम भेद-तीर्थकर नाम कर्म । ४८.१२ निक्षेप-प्रमाण और नयके अनु सार प्रचलित लोक-व्यवहार__को निक्षेप कहते हैं। ६२।२८ निधि-चक्रवर्ती निम्नांकित नौ निधियोंका स्वामी होता है१. काल, २. महाकाल, ३. पाण्डु, ४. माणव, ५. शङ्ख, ६. नैसर्प, ७. पद्म, ८. पिङ्गल और ९. नाना रत्न ६१९९५ निर्विचिकित्सा - सम्यग्दर्शनका एक अङ्ग ६३।३१५-३१६ नि कांक्षित अङ्ग-दर्शन-विशुद्धि का एक रूप ६३।३१४ निःशाङ्कित अङ्ग-दर्शन-विशुद्धि का एक रूप ६३३३१३ निष्क्रान्ति कल्याणक-दोक्षाकल्याणक तीर्थंकरोंके तपधारण करने के समय होनेवाला देवकृत विशिष्ट उत्सव ४८:३७ [प] पञ्चनमस्कार-णमोकार मन्त्र ७०।१३७ पञ्चविध मिथ्यात्व-१. अज्ञान २. संशय, ३.एकान्त, ४.विप. रीत और ५. विनयप ये पांच मिथ्यात्वके भेद है ६२।२९७ पञ्चविंशति दुस्तरव-सांख्यधर्ममें स्वीकृत प्रकृति आदि २५ तत्व ७४।७२ पञ्चसद्बत-१. अहिंसा,२. सत्य, ३. अचौर्य, ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह १०१।११९ पञ्चसूना-१. कूटना, २. पीसना, ३. बुहारना, ४. पानी भरना और ५. चूल्हा जलाना ६३.३७४ । पञ्चप्रकार संसार-१. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल, ४. भव और ५ भाव ये ही पांच परिवर्तन कहलाते हैं। इनके स्वरूपके लिए सर्वार्थसिद्धिका 'संसारिणो मुक्ताश्च' सूत्र द्रष्टव्य है। ६७।८ परमेष्ठी-परमपदमें स्थित रहनेवाले-१. अरहन्त, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय और ५. सर्वसाधु, ये पाँव परमेष्ठो कहलाते हैं ४८६१३ परावगाढ-सम्यग्दर्शनके दश भेदों में से एक भेद । इनका वर्णन गुणभद्राचार्यने अपने आत्मानुशासन अन्यमें 'आज्ञामार्ग-समुद्भव' बादि श्लोक में किया है ५४।२२९ पाश्चस्थ-एक प्रकारके भ्रष्ट मुनि ७६।१९२ पूर्व-चौरासी लाखमें चौरासी लाखका गुणा करनेपर जो लब्ध आता है उसे पूर्वाङ्ग कहते हैं, ऐसे चौरासो लाख पूर्वाङ्गोंका एक पूर्व होता है। ४८।२८ पूर्वधारिन्-ग्यारह अङ्ग और नौदह पूर्वोके ज्ञात मुनि४८।४३ प्रकृति-कर्मों के भेद प्रभेद । ४८।५२ प्रभावना-सम्यग्दर्शनका एक अंग ६३३३२० प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ-१.प्रज्ञप्ति, २. कामरूपिणी, ३. अग्नि, [ध] धनुष-चार हाथका एक धनुष होता है ४८०२८ नय-पदार्थके परस्पर विरोधी नित्य अनित्य धर्मोंमें-से विवक्षा वश किसी एक धर्मको ग्रहण करनेवाला ज्ञान ६२।२८ नवकेवललब्धि- १. देवलज्ञान २. केवलदर्शन ३. क्षायिक सम्यक्त्व ४. क्षायिक चारित्र ५. क्षायिक दान ६. लाभ ७. भोग ८. उपभोग और ९. वीर्य ये नो केवललब्धियां हैं ६१६१०१ नवपुण्य-१. प्रतिग्रहण-पड़गाहना २. उच्चस्थान देना ३. पाद-प्रक्षालन ४. अर्चन ५. नमस्कार ६. मनःशुद्धि ७. वचनशुद्धि ८. कायशुद्धि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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