Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 677
________________ स्तम्मिनो ४. उदकस्तम्मिनी ५.विश्व प्रवैशिनी ६. अप्रतघात गामिनी ७. बाकाशगामिनी ८. उत्पादिनी ९. वशीकरणी १०. आशिनी ११. माननीय प्रस्थापिनी १२. प्रमोहनी १३. प्रहरणी १४. संक्रामनी १५. आवर्तनी १६. संग्रहणी १७. भंजनी १८. विपाटिनी १९. प्रावर्तकी २०. प्रमोदिनी २१. प्रहापनी २२. प्रभावती २३. प्रलापनी २४. निक्षेनी २५. शर्वरी २६. चाण्डाली २७. मातङ्गी २८. गौरी २९. षडङ्गिका ३०. श्रीमत्कन्या ३१. रातसंकुला ३२. कुभाण्डी ३३. विरल वेगिका ३४. रोहिणी मनोवेगा ३६. महावेगा ३७. चण्डवेगा ३८. चपलवेगा ३९. लघुकरी ४०. पर्णलधु ४१. वेगावती ४२. शीतदा ४३. ३५. उष्णदा ४४.वैताली ४५. महाज्वाला ४६. सर्वविद्या छेदिनी ४७. युद्धवीर्या ४८. बन्धमोचिनी ४९. प्रहारावरणी ५०. भ्रामरी ५१. अभोगिनी इत्यादि। ६२१३९१-४०० प्रतिमायोग-कायोत्सर्ग मुद्रा खड़े होकर ध्यान करना ४८१५३ प्रमाण-पदार्थ के परस्पर विरोधो नित्य अनित्य आदि सब धो. को ग्रहण करनेवाला ज्ञान ६२।२८ प्राजापत्य-विवाहका एक भेद, जिसमें माता-पिता आदि परिजनको सम्मति पूर्वक वर और कन्या परस्पर विवाहित होते हैं ७०।११५ प्रातिहार्याष्टक-आठ प्रातिहार्य१. अशोक वृक्ष २. सिंहासन ३. छत्रत्रय ४. भामण्डल ८२ Jain Education International पारिभाषिक,शब्दकोष ५. दिव्यध्वनि ६. पुष्पवृष्टि ७. चौंसठ चमर और ८. दुन्दुभि बाजे ये बाठ प्रातिहार्य तीर्थकर अरहन्तके होते हैं । भगवान्को जिस वृक्षके नीचे केवलज्ञान प्राप्त होता है वही समवसरणमें अशोकवृक्ष कहलाता है ५४।२३१ प्रायोपगमन-भक्त प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन ओर इंगिनीमरण। संन्यासके इन तीन भेदों में से एक भेद । जिस संन्यास मरण में क्षपक अपने शरीरको टहल स्वयं करता है दूसरेसे नहीं कराता उसे प्रायोपगमन कहते हैं ६२१४१० 1 [व] बलभद्र के चार रन-१. रत्नमाला २. देदीप्यमान हल ३. मूसल और ४. गदा ६२।१४९ बशाल भक्ति-बहुश्रुत भक्ति• एक भावना ६३३३२७ बातिर द्विषड् भेद तप-बाह्य और बाभ्यन्तरके भेदसे बारह प्रकारका तप-१. अनशन २. अवमोदर्य ३. वृत्तिपरिसंख्यान ४. रस परित्याग ५. विविक्त शय्यासन और ६. कायक्लेश ये छह बाह्य तप है। और १. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान ये छह आभ्यन्तर प है ६२११५६ पीजसमुभव-सम्यग्दर्शनका एक भेद ७४।४३९, ४४४, हो सके उसे भव्य कहते हैं ५९।२१४ मावना-तीर्थकर नामकर्मका बन्ध करानेवाली सोलह भावनाएँ-१. दर्शन विशुद्धि २. विनय संपन्नता ३. शील. व्रतेष्वनतिचार ४. अभीक्षण ज्ञानोपयोग ५. संवेग ६ शक्तितस्त्याग ७. शक्तितस्तप ८. साधु समाधि ९. वैयावृत्यकरण १०. बहक्ति ११. प्राचार्यभक्ति १२. बहुश्रुत भक्ति १३. प्रवचनभक्ति १४. बावश्यकापरिहाणि १५. मार्ग प्रभावना और १६. प्रवचन वात्सल्य ४८।१२ [म] महामह-एक विशिष्ट पूजा ७५।४७७ मानसाहार-देवोंकी जितने सागरको बायु होती है उतने हजार वर्ष बाद उन्हें बाहारकी इच्छा होती है। इच्छा होते ही कण्ठमें अमृत भुड़ जाता है और उनकी क्षुधा दूर हो जाती है। यही मानसाहार कहलाता है ६१।११ मागप्रमावना-एक भावना ६३६३२९ मार्गसमुनव-सम्यग्दर्शनकाएक भेद ७४।४३९,४४२ मिथ्यात्वादि पञ्चक-कर्मबन्धक निम्नाङ्किस पांच कारण होते है-१. मिथ्यात्व २. बविरति ३. प्रमाद ४. कषाय और ५. योग ५४११५१ मुक्तावकी-एक उपवासका नाम। ७१.४०८ [य] योग-खात्माके प्रदेशोंके परिपन्द-हसन-चलनको योग भव्य-जिसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738