Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 675
________________ चतुर्थीविद्या-प्रान्वीक्षिकी,त्रबी, वार्ता बोर दण्डनीति इन चार विद्याओंमे चतुर्थी विद्यादण्डनीति ५११५ चतुमुख-गृहस्थके द्वारा की जानेवाली एक पूजा ७३१५८ चतुस्त्रिशदतीशेष-चौतीस अति. शय । दश जन्मके, दश केवलज्ञानके और चौदह देव रचितइस तरह सब मिलाकर तीर्थ. कर अर्हन्तके चौतीस अतिशय होते हैं। ५१.२३१ चतुष्टयीवृत्ति-प्रर्जन, रक्षण, वर्धन और व्यय-धनकी यह चार वृत्तियाँ होती है । ५१७ चतुमेंद प्रायोग्य-काललब्धि, प्रायोग्यलब्धि,क्षयोपशमलब्धि, देशनालब्धि,ये चार लब्धियां। इनके साथ करणब्धिको मिला देनेसे पांच लब्धियाँ होती हैं। ६२१३२२ चान्द्रायण-एक व्रत जिसमें चन्द्रमाकी कलाओंकी वृद्धि तथा हानिके अनुसार बढ़ते और घटते हुए ग्रास लिये जाते हैं। ६३०१९ चारणत्व-पाकाशगामी ऋडिसे युक्त मुनिपद ४८५८२ [छ] छास्थ्य-तीर्थकर, देक्षा लेने के बाद जबतक केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर ले। तब तकका काल छापस्थ्य काल कहलाता है। इसकापस्यकालको तोर्थः कर मोनसे हो व्यतीत करते ४८०४२ पारिभाषिक शब्दकोश जिनमक्ति-अहंक्ति -एक भावना ६३१३२७ जीवादिक-जीव, अजीव मात्र, बन्ध, संबर, निर्जरा और मोक्ष ये सात द्रव्य अथवा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये: द्रव्य ५४॥२७५ [त] तपस्-एक भावना ६३१३२४ तुरीयचारित्र-सूक्ष्म साम्पगय चारित्र, यह चारित्र संज्वलन लोभका अत्यन्त मन्द उदय रहते हुए दशम गुणस्थानमें होता है। ५४॥२२५ सुर्यगुणस्थान-चतुर्थ गुणस्थान, अविरत सम्यग्दृष्टि ५४७७ तुर्यध्यान-युपरत क्रिया निवति नामका चौथा शुक्लध्यान । यह ध्यान चौदहवें गुणस्थानमें होता है। ४८.५२ तीर्थ-तीर्थकरकी प्रथम देशनासे तीर्थ शुरू होताबोर बागामो तीर्थकरको प्रथम देशनाके पूर्व समय तक पूर्ण होता है। ६१६५६ स्थाग-एक भावना ६३३३२३ त्रय-सात दिन तक मेघोंका वरसना त्रय-कहलाता है। ५८।२७ त्रितयतनु-औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर ६११५५ त्रिभेदनिवंग-संसार, शरीर और भोग इन तीनसे वैराग्य .[ ] दशधर्मा-१. उत्तम समा २. मादर ३.बाब ४. शौच ५. सत्य इ. संयम ७. तप ८. त्याग ९. बाकिन्यन्य और १०. ब्रह्मवर्थ ये दशधर्म है। भोजन ३. शय्या ४. सेना ५. यान ६. आसन ७. निधि ८. रत्न ९. नगर और १०. नोटय ये दशमोग है। ६६७९ दण्डादिक-दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण नामक केवल समुद्धातसे भेद जिस केंवलियों के आयुकर्मको स्थिति बोड़ी और शेष तीन अघातिया कोकी स्थिति अधिक होतो है उनके स्वतः वलिसमुदात होता है। इस समुहातको दण्ड, कपाट, प्रतर और लोक. पुरण ये चार अवस्थाएं होती है। ४८।५२ दर्शन विशुद्धि-तीकर प्रकृतिके बन्धयोग्य एक भावना। ६३१३१२ दिग्य विनाद-विष्यध्वनितोर्य करका दिव्य उपदेश ४८.५१ दीक्षान्बय क्रिया-इसका विशेष वर्णन महापुराण द्वितीय भागमें द्रष्टव्य है। ६३३०२ देशावधि-अवधिज्ञानका एक भेद द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादा लिये हुए रूपी पदार्थों. को इन्द्रियादिकी सहायताके बिना प्रत्यक्ष जानना अवषिशान है। इसके तीन भेद है-१. देशावधि २. परमावधि और ३. सर्वावधि । देशावधि चारों गतियोंमें हो सकता है पर शेष दो भेद मनुष्य गसिमें मुनियोंके ही होते है । ४८२॥ देहत्रय-औदारिक, समीर कार्मण येतोन शरीर ४८.५२ हाविंशति परीषह-१. क्षुषा २. तृषा ३. शीत ४. उष्ण ५.वंशमक ६. मान्य ७. जिनगुणस्याति-उपवासका एक व्रत ६३०२४७ जिनगुणसम्पत्ति-एक ७१।४३८ दशमोग-१. भावन २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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