Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 674
________________ ६४६ .. [ए] एकान्त मिथ्यात्व-द्रव्य-पर्याय रूप पदार्थ में एक अन्त-धर्म. का निश्चय करना ६१॥३०० एकादशाङ्ग-द्वादशाङ्गके भेद स्वरूप ग्यारह अङ्ग-१. याचाराङ्ग, २. मूत्रकृताग, ३. स्थानाङ्ग,४. समवायाङ्ग. ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, अङ्ग, ६ ज्ञातृधर्मरथाङ्ग, ७. उपास. काध्ययनाङ्गः ८. अन्तकृद्दशाङ्ग, ९. अनुनारोषादिक दमाङ्ग, १०. विपाक सूत्राङ्ग, और ११. प्रश्नव्याकरणाङ्ग, इनमें १२या दृष्टिवादाङ्ग मिलानसे द्वादशाङ्ग कहलाने लगते हैं। ४८।१२ कणशीकर-अस्सो दिन तक मेघ बरसना कणशीकर कहलाता ५८।२८ कनकावली-उपवासका एक व्रत उत्तरपुराणम् कर्मान्वय-रक क्रिया, इनका विस्तृत वर्णन महापुराण द्वितीय भागमें द्रष्टव्य है। ६३।३०२ कल्पवृश्न-गृहस्प चक्रवर्ती के द्वारा की जानेवालो एक विशिष्ट पूजा ७२।५९ कामके पाँच बाण-१. तर्पण, २. तापन, ३. मोहन, ४. विलापन, ५. मारण, ७२।११९ कुशील-एक प्रकारके भ्रष्ट मुनि ७६.१९३ कृनकादित्रिक-कृत, कारित, हनुमोदन । ७३.१११ केवल-केवल ज्ञान, समस्तद्रव्यों और उनको पर्यायोंको जानने वाला सर्वोत्कृषु ज्ञान। ६१.४३ कैवल्यनवक-नव के वल लब्धियाँ ७२।१९१ क्षीरास्रवद्धि-एक ऋद्धि जिसके प्रभावसे शुष्क आहारसे..मी दूध मरने लगती है। ५९।२५७. [ग] - गणनाथमकि-आचार्यभक्ति एक भावना। ६३।३२७ गतिचतुष्टय-नरक, तियंच, मनुष्य और देव यह गतिचतुश्य कहलाता है। ५३१८ गर्भान्वयक्रिया-इनका विस्तृत वर्णन महापुराण द्वितीय भागमें प्रष्टव्य है । ६३।३०२ गुप्त्यादिषट्क-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह, जप और चारित्र ये गुप्त्यादिषट्क कहलाते हैं । इनसे संवर होता है। ५२१५५ प्रथय-अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग के भेदसे दो प्रकारका परिग्रह ६७४१३ [घ] पाति-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोरमोर बसराय ये बारका. निया का है। इनमें से महका दमन गुणम्पाना अन्त में और शेष तीनका बारणस्थानक अन्समें क्षय होता है। ५॥२२८ [च] चक्रंट ( नारायण ) के सात रन्न-१. अमि, २. दास, ३. धनुष, ४. चक्र, ५. शक्ति, ६. दार और ७. गदा, ६२११४८ चतुर्दश महारत्न- चवींके निम्नावित १४ रत्न होते है१. सुदर्शन चक्र, २. पत्र, ३. खङ्ग. ४. दण्ड, ५. काकिणी, ६. चर्म, ७. चूड़ामणि, ८. पुरोहित, ९. सेनापति, १०. स्थाति, ११. गृहपति, १२. कन्या , १३. गज और १४. अश्व ६११९५ चतुर्विध बन्ध-१. प्रकृति २. स्थिति ३. अनुभाग और ४. प्रदेश ये चार प्रकारके बन्ध हैं। ५८।३१ चतुविधामर-१. भवनवासी २. व्यन्तर ३. ज्योतिष्क और ४. वैमानिक ये चार प्रकारके देव हैं। ५५५१ चतुर्थज्ञान-मनःपर्ययज्ञान ज्ञानोंके निम्नलिखित पांव भेद है१. मतिज्ञान २. श्रुतिज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मन.पर्ययज्ञान और ५. केवलज्ञान । दूसरेके मनमें स्थिति रूपी पदार्थको इन्द्रियोंकी सहायताके बिना मर्यादा लिये हुए स्पष्ट जानना मन:पर्ययज्ञान है । इसके ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद है। ४८।४. चतुर्थशुक्लध्यान-ग्युपरतक्रिया निति ६३३४९८ करण्य -१. बंध:करण, २. अपूर्वकरण, ३. अनिवृत्तिकरण, जिनमें सम-समयवर्ती तथा भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश और असदृश दोनों प्रकारके होते है उन्हें अधःकरण कहते हैं। जिनमें सम. समयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश और असदृश दोनों प्रकारके तथा भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम असदृश ही होते हैं उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं । और जहाँ समसमयवर्ती जीबोके परिणाम सदृश ही और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असदृश हो होते हैं उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते है ५४।२२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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