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पञ्चसप्ततितमं पर्व
स्वयंवरविधौ तस्मिंश्चन्द्रकव्यधने नृपान् । स्खलितांस्तान्बहून्वीक्ष्य जीवन्धरकुमारकः ॥ ६४९ ॥ कृतसिद्धनमस्कारः स्वगुरोश्चार्यवर्मणः । विधाय विनयं बालभानुर्वोदय शैलगः ॥ ६५० ॥ स्थित्वा विभास्वरस्तस्मिंश्चक्रे स्खलनवर्जितम् । कृतवेधो व्यधात्सिंहनादं नादितदिक्कटम् ॥ ६५१ ॥ साधु विद्धमनेनेति प्राशंसन् प्राश्निकास्तदा । कण्ठे मालां कुमारस्य सा समासञ्जयन्मुदा ॥ ६५२ ॥ साधवस्तत्र योग्योऽयमनयोर्ननु सङ्गमः । शरत्समयहंसाल्योरिवेति प्रीतिमागताः ॥ ६५३ ॥ सर्वत्र विजयः पुण्यवतां को वात्र विस्मयः । इत्यौदासीन्यमापना मध्यमाः कृतबुद्धयः ॥ ६५४ ॥ काष्ठाङ्गारिकमुख्यास्ते नीचा प्राप्तपराभवाः । प्रातस्मात्चदनुस्मृत्य दुष्प्रकोपप्रचोदिताः ॥ ६५५ ॥ पापास्तुमुलयुद्धेन कन्यामाहर्तुमुद्यताः । बुध्वा जीवन्धरस्तेषां वैषम्यं नयकोविदः ॥ ६५६ ॥ सत्यन्धरमहाराजसामन्ताद्यन्तिकं तदा । प्राहिणोदिति सन्दिष्टान् दूतान् सोपायनान् बहून् ॥ ६५७ ॥ अहं सत्यन्धराधीशाद्विजयायां सुतोऽभवम् । मत्पूर्वकृतदैवेन ताभ्यामुत्पत्यनन्तरम् ॥ ६५८ ॥ वियुक्तोऽस्मि वणिग्वर्यशरणे समवधिंषि । काष्टाङ्गारिकपापोऽयं काष्ठाङ्गारादिविक्रमात् ॥ ६५९ ॥ प्राणसन्धारणं कुर्वन्युष्मदुर्वीभृता कृतः । द्वितीयप्रकृतिनींचो लब्धरन्ध्रो दुराशयः ॥ ६६० ॥ तमेवाहिरिवाहत्य स्वयं राज्ये व्यवस्थितः । उच्छेद्यो न ममैवाशु शत्रुत्वाद्भवतामपि ॥ ६६१ ॥ रसातलं गतोऽप्यद्य मयावश्यं हनिष्यते । सत्यन्धरमहीशस्य सामन्तास्तस्य भाक्तिकाः ॥ ६६२ ॥ यौधाः पुष्टा महामात्रास्तेनाम्ये चानुजीविनः । कृतघ्नममुमुच्छेत्तुमर्हन्ति कृतवेदिनः ॥ ६६३ ॥
राजा उस कन्या के साथ विवाह करनेके लिए राजपुर नगर में जा पहुँचे । ६४८ ॥ स्वयंवर के समय उस चन्द्रक यन्त्र के वेधनेमें अनेक राजा स्खलित हो गये-चूक गये । उन्हें देख, जीवन्धर कुमार उठे । सबसे पहले उन्होंने सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार किया, फिर अपने गुरु आर्यवर्माकी विनय की और फिर जिस प्रकार बालसूर्य उदयाचलकी शिखरपर आरूढ़ होता है उसी प्रकार उस चक्र पर आरूढ़ हो गये । उस समय वे अतिशय देदीप्यमान हो रहे थे, उन्होंने बिना किसी भूल के चन्द्रकयन्त्रका वेध कर दिया । और दिशाओंके तट तक गूँजनेवाला सिंहनाद किया ।। ६४६-६५१ ।। उसी समय धनुष विद्याके जाननेवाले लोग उनकी प्रशंसा करने लगे कि इन्होंने अच्छा निशाना मारा और कन्या रत्नवतीने भी प्रसन्न होकर उनके गलेमें माला पहिनाई ।। ६५२ ।। उस सभा में जो सज्जन पुरुष विद्यमान थे वे यह कहते हुए बहुत ही प्रसन्न हो रहे थे कि जिस प्रकार शरद् ऋतु और हंसावलीका समागम योग्य होता है उसी प्रकार इन दोनोंका समागम भी योग्य हुआ है ।। ६५३ ।। जो बुद्धिमान् मध्यम पुरुष थे वे यह सोचकर उदासीन हो रहे थे कि सब जगह पुण्यात्माओंकी विजय होती ही है इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ।। ६५४ ।। और जो काष्ठाङ्गारिक आदि नीच मनुष्य थे वे जीवन्धरसे पहले भी पराभव प्राप्त कर चुके थे अतः उस सब पराभवका स्मरण कर दुष्ट क्रोधसे प्रेरित हो रहे थे । वे पापी भयंकर युद्धके द्वारा कन्याको हरण करनेका उद्यम करने लगे । नीति-निपुण जीवन्धर कुमारने उनकी यह विषमता जान ली जिससे उन्होंने उसी समय भेंट कर तथा निम्नलिखित सन्देश देकर बहुतसे दूत सत्यन्धर महाराज के सामन्तोंके पास भेजे ।। ६५५-६५७ ।। ' मैं सत्यन्धर महाराजकी विजया रानीसे उत्पन्न हुआ पुत्र हूँ । अपने पूर्वकृत कर्मके उदयसे मैं उत्पन्न होनेके बाद ही अपने माता-पितासे वियुक्त होकर गन्धोत्कट सेठके घरमें वृद्धिको प्राप्त हुआ हूँ । यह पापी काष्ठाङ्गारिक काष्ठाङ्गार ( कोयला ) बेचकर अपनी आजीविका करता था परन्तु आपके महाराजने इसे मन्त्री बना लिया था । यह राजसी प्रकृति अत्यन्त नीच पुरुष है । छिद्र पाकर इस दुराशयने साँपकी तरह उन्हें मार दिया और स्वयं उनके राज्य पर आरूढ़ हो गया । यह न केवल मेरे ही द्वारा नष्ट करनेके योग्य है परन्तु शत्रु होनेसे आप लोगोंके द्वारा भी नष्ट करने योग्य है । यदि आज यह रसातल में भी चला जाय तो भी मेरे द्वारा अवश्य ही मारा जायगा । आप लोग सत्यन्धर महाराज के सामन्त हैं, उनके भक्त हैं, योद्धा हैं, उनके द्वारा पुष्ट हुए हैं, अतिशय उदार हैं और कृतज्ञ हैं इसलिए आप तथा अन्य अनुजीवी लोग इस कृतघ्नको अवश्य ही नष्ट करें' ।। ६५८-६६३ ।।
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