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सप्ततितमं प
जातो माहेन्द्रकल्पेऽनु मनुष्योऽनु ततश्च्युतः । नरकेषु श्रसस्थावरेष्वसंख्यातवत्सरान् ॥ ५३७ ॥ भ्रान्त्वा ततो विनिर्गत्य स्थावराख्यो द्विजोऽभवत् । ततश्चतुर्थकल्पेऽभूद्विश्वनन्दी ततश्च्युतः ॥ ५३८ ॥ महाशुक्रे ततो देवखिखण्डेशस्त्रिष्पृष्टवाक् । सप्तमे नरके तस्मात्तस्माच्च गजविद्विषः ॥ ५३९ ॥ आदिमे नरके तस्मात्सिंहः सद्धर्मनिर्मलः । ततः सौधर्मंकल्पेऽभूत्सिंहकेतुः सुरोत्तमः ॥ ५४० ॥ कनकोज्ज्वलनामाभूत्ततो विद्याधराधिपः । देवः सप्तमकल्पेऽनु हरिषेणस्ततो नृपः ॥ ५४१ ॥ महाशुक्रे ततो देवः प्रियमित्रोऽनु चक्रभृत् । स सहस्रारकल्पेऽभूद्देवः सूर्यप्रभाह्वयः ॥ ५४२ ॥ राजा नन्दाभिधस्तस्मात्पुष्पोत्तरविमानजः । अच्युतेन्द्रस्ततश्च्युत्वा वर्धमानो जिनेश्वरः ॥ ५४३ ॥ प्रातपञ्चमहाकल्याणदिः प्रस्तुत सिद्धिभाक् । प्रदिश्याद्गुणभद्रेभ्यः स विभुः सर्वमङ्गलम् ॥ ५४४ ॥
शार्दूलविक्रीडितम्
इत्थं गौतमवक्त्रवारिजलसद्वाग्वल्लभावाङ्मयैः
पीयूपैः सुकथारसातिमधुरैर्भक्तयोपयुक्तैश्चिरम् ।
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सा संसन्मगधाधिपश्च महतीं तुष्टिं समं जग्मतुः
पुष्टिं दृष्टिविबोधयोविंदधतीं सर्वार्थसम्पत्करीम् ॥ ५४५ ॥ वसन्ततिलका
श्रीवर्धमानमनिशं जिनवर्धमानं
त्वां तं नये स्तुतिपथं पथि सम्प्रधौते ।
योsयोsपि तीर्थकरमग्रिमप्यजैषीत्
काले कलौ च पृथुलीकृतधर्मतीर्थः ॥ ५४६ ॥
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स्वर्ग में देव हुआ, फिर भारद्वाज नामका ब्राह्मण हुआ, फिर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, फिर वहाँ से च्युत होकर मनुष्य हुआ, फिर असंख्यात वर्षों तक नरकों और त्रस स्थावर योनियों में भ्रमण करता रहा ॥ ५३६-५३७ ।। वहाँ से निकलकर स्थावर नामका ब्राह्मण हुआ, फिर चतुर्थ स्वर्गमें देव हुआ, वहाँ से च्युत होकर विश्वनन्दी हुआ, फिर त्रिपृष्ठ नामका तीन खण्डका स्वामी-नारायण हुआ, फिर सप्तम नरक में उत्पन्न हुआ वहाँ से निकल कर सिंह हुआ ।। ५३८ - ५३६ ।। फिर पहले नरक में गया, वहां से निकल कर फिर सिंह हुआ, उसी सिंहकी पर्याय में उसने समीचीन धर्मं धारण कर निर्मलता प्राप्त की, फिर सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नामका उत्तम देव हुआ, फिर कनकोज्वल नामका विद्याधरोंका राजा हुआ, फिर सप्तम स्वर्गमें देव हुआ, फिर हरिषेण राजा हुआ, फिर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ, फिर प्रियमित्र नामका चक्रवर्ती हुआ, फिर सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामका देव हुआ, वहाँ से आकर नन्द नामका राजा हुआ, फिर अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें उत्पन्न हुआ और फिर वहाँ से च्युत होकर वर्धमान तीर्थंकर हुआ है ।। ५४० - ५४३ ।। जो पश्वकल्याण रूप महाऋद्धिको प्राप्त हुए हैं तथा जिन्हें मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त हुई है ऐसे वे वर्धमान स्वामी गुणभद्रके लिए अथवा गुणोंसे श्रेष्ठ समस्त पुरुषोंके लिए सर्व प्रकार के मङ्गल प्रदान करें ।। ५४४ ।।
इस प्रकार अच्छी कथाके रससे मधुर तथा भक्तिसे आस्वादित, गौतम स्वामीके मुखकमल में सुशोभित सरस्वती देवीके वचन रूपी अमृतसे, वह सभा तथा मगधेश्वर राजा श्रेणिक दोनों ही, समस्त अर्थ रूप सम्पदाओं को देनेवाले एवं ज्ञान और दर्शनको पुष्ट करनेवाले बड़े भारी सन्तोषको प्राप्त हुए ।। ५४५ ।। जो निर्मल मोक्षमार्ग में रात-दिन लक्ष्मी से बढ़ते ही जाते हैं, जिन्होंने इस कलिकाल में भी धर्म तीर्थका भारी विस्तार किया है, और जिन्होंने अन्तिम तीर्थंकर को भी जीत लिया है ऐसे श्रीवर्धमान जिनेन्द्रको मैं स्तुति के मार्ग में लिये जाता हूँ - अर्थात् उनकी स्तुति
१- मजितं इति क्वचित्पाठः ।
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