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महापुराणे उत्तरपुराणम
उदयगिरितटाद्वा भास्करो भासमानो
मुनिरनु जिनसेनो वीरसेनादमुष्मात् ॥ ८ ॥ यस्य प्रांशु नखांशुजालविसरदारान्तरविर्भवत्
पादाम्भोजरजःपिशङ्गमुकुट प्रत्यमरत्नद्युतिः । संस्मतां स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्य त्यलम्
स श्रीमान्जिन सेन पूज्य भगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ॥ ९ ॥ प्रावीण्यं पदवाक्ययोः परिणतिः पक्षान्तराक्षेपणे
सद्भावावगतिः कृतान्तविषया श्रेयःकथाकौशलम् । ग्रन्थग्रन्थिभिदिः सदध्वकवितेत्यग्रो गुणानां गणो
ये सम्प्राप्य चिरं कलङ्कविकलः काले कलौ सुस्थितः ॥ १० ॥ ज्योत्स्नेव तारकाधीशे सहस्रांशाविव प्रभा । स्फटिके स्वच्छतेवासीत्सहजास्मिन्सरस्वती ॥ ११ ॥
दशरथगुरुरासीशस्य धीमान्सधर्मा
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शशिन इव दिनेशो विश्वलोकैकचक्षुः । निखिलमिदमदीपि व्यापि तद्वाङ्मयूखैः
प्रकटितनिजभावं निर्मलैर्धर्मसारैः ॥ १२ ॥
सद्भावः शर्वशास्त्राणां तद्भास्वद्वाक्यविस्तरे । दर्पणार्पितबिम्बाभो' बालैरप्याशु बुध्यते ॥ १६ ॥ प्रत्यक्षीकृतलक्ष्यलक्षणविधिविश्वोपविद्यां गतः
सिद्धान्ताध्यवसानयानजनित प्रागल्भ्यवृद्धीद्धधीः ।
रूपसे नष्ट करता रहे। जिस प्रकार हिमवान् पर्वतसे गङ्गानदीका प्रवाह प्रकट होता है, अथवा सर्वज्ञ देवसे समस्त शास्त्रोंकी मूर्ति स्वरूप दिव्य ध्वनि प्रकट होती हैं अथवा उदयाचलके तटसे देदीप्यमान सूर्य प्रकट होता है उसी प्रकार उन वीरसेन स्वामीसे जिनसेन मुनि प्रकट हुए ।। ७-८ ॥ श्री जिनसेन स्वामीके देदीप्यमान नखोंके किरणसमूह धाराके समान फैलते थे और उसके बीच उनके चरण कमलके समान जान पड़ते थे उनके उन चरण-कमलोंकी रजले जब राजा अमोघवर्षके मुकुट में लगे हुए नवीन रत्नोंकी कान्ति पीली पड़ जाती थी तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि मैं आज अत्यन्त पवित्र हुआ हूँ । आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि उन पूजनीय भगवान् जिनसेनाचार्यके चरण संसारके लिए मङ्गल रूप हों ॥ ६ ॥ पद और वाक्यकी रचना में प्रवीण होना, दूसरे पक्षका निराकरण करनेमें तत्परता होना, आगमविषयक उत्तम पदार्थोंको अच्छी तरह समझना, कल्याणकारी कथाओंके कहने में कुशलता होना, ग्रन्थके गूढ अभिप्रायको प्रकट करना और उत्तम मार्ग युक्त कविताका होना ये सब गुण जिनसेनाचार्यको पाकर कलिकाल में भी चिरकाल तक कलङ्करहित होकर स्थिर रहे थे ।। १० ।। जिस प्रकार चन्द्रमामें चाँदनी, सूर्यमें प्रभा और स्फटिकमें स्वच्छता स्वभावसे ही रहती है उसी प्रकार जिनसेनाचार्य में सरस्वती भी स्वभावसे ही रहती थी ॥ ११ ॥ जिस प्रकार समस्त लोकका एक चतुस्वरूप सूर्य चन्द्रमाका धर्मा होता है । उसी प्रकार अतिशय बुद्धिमान् दशरथ गुरु, उन जिनसेनाचार्य के सधर्मा बन्धु थे - एक गुरु-भाई थे । जिस प्रकार सूर्य अपनी निर्मल किरणोंसे संसारके सब पदार्थोंको प्रकट करता है उसी प्रकार वे भी अपने वचनरूपी किरणोंसे समस्त जगत्को प्रकाशमान करते थे ॥ १२ ॥ जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित सूर्यके मण्डलको बालक लोग भी शीघ्र जान जाते हैं उसी प्रकार जिनसेनाचार्यके शोभायमान वचनोंमें समस्त शास्त्रोंका सद्भाब था यह बात अज्ञानी लोग भी शीघ्र ही समझ जाते थे ॥ १३ ॥ सिद्धान्त शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी होनेसे जिसकी बुद्धि अतिशय
१ विम्बोऽसौ म०, घ०, ग०, क० । २ विश्वोपविद्यान्तरात् ग०, घ०, म० । विद्योपविद्यातिगः ब० । ३ सिद्धान्तादृद्व्यवहारयान क०, ग०, घ०, म० ।
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