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प्रशस्ति:
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अकालवर्षभूपाले पालयत्यखिलामिलाम् । तस्मिन्विध्वस्तनिश्शेषद्विषि वीध्रयशोजुषि ॥ ३१ ॥
पमालयमुकुलकुलप्रविकासकसत्प्रतापततमहसि । श्रीमति लोकादित्ये प्रध्वस्तप्रथितशत्रुसन्तमसे ॥३२॥ चेलपताके चेल्लध्वजानुजे चेल्लकेतनतनूजे । जैनेन्द्रधर्मवृद्धविधायिनि विधुवीध्रपृथुयशसि ॥ ३३॥ वनवासदेशमखिलं भुञ्जति निष्कण्टकं सुखं सुचिरम् । तत्पितृनिजनामकृते ख्याते वक्कापुरे पुरेष्वधिके ॥३॥ शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिताब्दान्ते ।
मङ्गलमहार्थकारिणि पिङ्गलनामनि समस्तजनसुखदे ॥ ३५॥ श्रीपञ्चम्यां बुधार्द्रायुजि दिवसजे मन्त्रिवारे बुधांशे
पूर्वायां सिंहलग्ने धनुषि धरणिजे सैंहिकेये तुलायाम् । सूर्ये शुक्रे कुलोरे गवि च सुरगुरौ निष्ठितं भव्यवः
प्राप्तज्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम् ॥ ३६ ॥ यावद्धरा जलनिधिगंगनं हिमांशु
स्तिग्मद्युतिः सुरगिरिः ककुभां विभागः । तावत्सतां वचसि चेतसि पूसमेत
च्छ्रोतस्यतिस्थितिमुपैतु महापुराणम् ॥ ३७॥ धर्मोऽत्र मुक्तिपदमत्र कवित्वमत्र
तीर्थेशिनां चरितमत्र महापुराणे। यद्वा कवीन्द्रजिनसेनमुखारविन्द
निर्यद्वचासि न मनांसि हरन्ति केषाम् ॥ ३८॥
जिन्होंने समस्त शत्रु नष्ट कर दिये थे, और जो निर्मल यशको प्राप्त थे ऐसे राजा अकालवर्ष जब इस समस्त पृथिवीका पालन कर रहे थे ॥ ३१ ॥ तथा कमलाकरके समान अपने प्रपितामह मुकुलके वंशको विकसित करनेवाले सूर्यके प्रतापके समान जिसका प्रताप सर्वत्र फैल रहा था, जिसने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध शत्रु रूपी अन्धकारको नष्ट कर दिया था, जो चेल्ल पताकावाला था जिसकी पताकामें मयूरका चिह्न था-चेल्लध्वजका अनुज था, चेल्लकेतन (बंकेय) का पुत्र था, जैनधर्मकी वृद्धि करनेवाला था, और चन्द्रमाके समान उज्ज्वल यशका धारक था ऐसा श्रीमान् लोकादित्य राजा, अपने पिताके नाम पर बसाये हुए अतिशय प्रसिद्ध बङ्कापुर नामके श्रेष्ठ नगरमें रहकर कण्टक रहित समस्त वनवास देशका सुखपूर्वक चिरकालसे पालन करता था ।। ३२-३४॥ तब महामङ्गलकारी और समस्त मनुष्योंको सुख देनेवाले पिङ्गल नामक ८२० शक संवत्में श्री पञ्चमी (श्रावण वदी ५) गुरुववार के दिन पूर्वा फाल्गुनी स्थित सिह लग्नमें जब कि बुध आर्द्रा नक्षत्र का, शनि मिथुन राशिका, मंगल धनुष राशि का, राहु तुलाराशिका, सूर्य, शुक्र कर्कराशि का, और बृहस्पति वृष राशि पर था तब यह उत्तरपुराण ग्रन्थ पूर्ण हुआ था, उसी दिन भव्यजीवोंने इसकी पूजा की थी। इस प्रकार सर्व श्रेष्ठ एवं पुण्यरूप यह पुरा संसारमें जयवन्त है ।। ३५-३६ ॥ जब तक पृथिवी है, आकाश है, चन्द्रमा है, सूर्य है, सुमेरु है,
और दिशाओंका विभाग है, तब तक सज्जनोंके वचनमें, चित्तमें और कानमें यह पवित्र महापुराण स्थितिको प्राप्त हो अर्थात् सज्जन पुरुष वचनों-द्वारा इसकी चर्चा करें, हृदयमें इसका विचार करें और कानोंसे इसकी कथा श्रवण करें ॥३७॥ इस महापुराणमें धर्मशास्त्र, मोक्षका मार्ग है, कविता है, और तीर्थंकरोंका चरित्र है अथवा कविराज जिनसेनके मुखारविन्दसे निकले हुए वचन
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