Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 601
________________ अथ प्रशस्तिः 'यस्यानताः पदनखैन्दवबिम्बचुम्बिः चूडामणिप्रकटसन्मुकुटाः सुरेन्द्राः । न्यक्कुर्वते स्म हरमर्धशशाङ्कमौलिलीलोद्धतं स जयताज्जिनवर्धमानः ॥ १ ॥ श्रीमूलसड घवाराशौ मणीनामिव साचिषाम् । महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि ॥ २ ॥ तत्र विनासिताशेषप्रवादिमदवारणः । वीरसेनाप्रणीवरसेनभट्टारको बभौ ॥ ३ ॥ ज्ञानचारित्रसामग्रीचा 'ग्रहीदिव विग्रहम् । विराजते विधातु यो विनेयानामनुग्रहम् ॥ ४ ॥ यत्क्रमानम्रराजन्यमुखाब्जान्यादधुः श्रियम् । चित्र विकासमासाद्य नखचन्द्रमरीचिभिः ॥ ५ ॥ सिद्धिभूपद्धतिं यस्य टीकां संवीक्ष्य भिक्षुभिः । टीक्यते हेलयान्येषां विषमापि पदे पदे ॥ ६ ॥ यस्यास्याब्जजवाक्छ्रिया धवलया कीर्त्येव संश्राव्यया" सम्प्रीतिं सततं समस्तसुधियां सम्पादयन्त्या सताम् । विश्वब्याप्ति परिश्रमादिव चिरं लोके स्थिति संश्रिताः श्रोत्रालीनमलान्यनाद्युपचितान्यस्तानि निःशेषतः ॥ ७ ॥ अभवदिव हिमाद्रेर्देवसिन्धुप्रवाहो Jain Education International ध्वनिरिव सकलशात्सर्वशास्त्रकमूर्तिः । इन्द्र लोग जिन्हें नमस्कार करते थे और इसीलिए जिनके चरण-नखरूपी चन्द्रमाके विम्बका स्पर्श करने से जिन इन्द्रोंके उत्तम मुकुट प्रकट हो रहे थे वे इन्द्र, मस्तक पर अर्ध चन्द्रको धारण करनेकी लीलासे उन्मत हुए महादेवका भी तिरस्कार करते थे ऐसे श्री वर्धमान स्वामी सदा जयशील हों ।। १ ।। जिस प्रकार समुद्रमें अनेक देदीप्यमान रत्नोंके स्थान होते हैं उसी प्रकार मूलसंघरूपी समुद्रमें महापुरुष-रूपी रत्नोंके स्थान स्वरूप एक सेनवंश हो गया है ।। २ ।। उसमें समस्त प्रवादी रूपी मदोन्मत्त हाथियोंको त्रास देनेवाले एवं वीरसेन संघमें अग्रणी वीरसेन भट्टारक सुशोभित हुए थे || ३ || वे ज्ञान और चारित्रकी सामग्री के समान शरीरको धारण कर रहे थे और शिष्य जनोंका अनुग्रह करनेके लिए ही मानो सुशोभित हो रहे थे ॥ ४ ॥ यह आश्चर्य की बात थी कि उन वीरसेन भट्टारकके चरणों में नम्र हुए राजा लोगोंके मुखरूपी कमल उनके नखरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे प्रफुल्लित होकर शोभाको धारण कर रहे थे || ५ | सिद्धिभूपद्धति प्रन्थ यद्यपि पद-पद पर विषम या कठिन था परन्तु उन वीरसेन स्वामीके द्वारा निर्मित उसकी टीका देखकर भिक्षु लोग उसमें अनायास ही प्रवेश करने लगे थे ॥ ६ ॥ जिन वीरसेन स्वामीके मुखरूपी कमलसे प्रकट हुई वचन रूपी लक्ष्मी, धवल कीर्तिके समान श्रवण करनेके योग्य है, समस्त बुद्धिमान् सज्जनों को सदा प्रेम उत्पन्न करनेवाली है और समस्त संसार में फैलनेके परिश्रमसे ही मानो इस लोकमें बहुत दिनले स्थित है उसी वचनरूपी लक्ष्मीके द्वारा अनादि कालसे संचित कानांमें भरे हुए मैल पूर्णरूप से नष्ट हो जाते हैं । विशेषार्थ - श्री वीरसेन स्वामीने षट्खण्डागमके ऊपर जो धवला नामकी टीका लिखी है वह मानो उनके मुखरूपी कमलसे प्रकट हुई लक्ष्मी ही है, कीर्ति के समान श्रवण करनेके योग्य है, समस्त सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंको निरन्तर उत्तम प्रीति उत्पन्न करती है, उसका प्रभाव समस्त लोक में फैला हुआ है । और वह लोकमें सिद्धान्त ग्रन्थों की सीमाके समान स्थित है । आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि उनकी वह धवला टीका श्रोतृजनोंके अज्ञान रूपी मैलको चिरकाल तक सम्पूर्ण १ मपुस्तकेऽयं श्लोकोऽधिकः - 'चतुर्विंशतितीर्थेशां चतुर्गतिनिवृत्तये । वृषभादिमहावीरपर्यन्तान् प्रणमाम्यहम् । २-मग्रहीदिव ल० । ३ पद्धतिर्यस्य ल० । ४ यस्या क०, ख०, ग०, घ० । ५ संश्रव्याय क०, भ०, म० । ६ स्थितिः म० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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