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महापुराणे उत्तरपुराणम् तस्मादीर विकायसायकशिखामौखर्यवीयंद्र हो -
मोहद्रोहजयस्तवैव न परेष्वन्यायविन्यासिषु ॥ ५७५॥ देवो वीरजिनोऽयमस्तु 'जगतां वन्द्यः सदा मूनि मे
देवस्त्वं हृदये गणेश वचसा स्पष्टेन येनाखिलम् । कारुण्यात्प्रथमानुयोगमवदः श्रद्धाभिवृदयावह
मडाग्योदयतः सतां स सहजो भावो ह्ययं ताशाम् ॥ ५७६॥
मालिनी इति कतिपयवाग्भिर्वर्धमानं जिनेन्द्र
मगधपतिरुदीर्णश्रद्धया सिद्धकृस्यः । गणतमपि नुस्वा गौतमं धर्मधुर्य:
स्वपुरमविशदुद्यत्तुष्टिरागामिसिद्धिः ॥ ५७७ ॥ "अनुष्टुपछन्दसा ज्ञेया ग्रन्थसङ्ख्या तु विशतिः ।
सहस्राणां पुराणस्य व्याख्यातृश्रोतृलेखकैः ॥ ५७८ ॥ इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह
श्रीवर्धमानस्वामिपुराणं नाम षट्सप्ततितम पर्व ।
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रहिन होकर समस्त संसारके लिए विना किसी बाधाके यथार्थ उपदेश देते हैं। इसी तरह हे वीर! आपने कामदेवके वाणोंकी शिखाकी वाचालता और शक्ति दोनों ही नष्ट कर दी है इसलिए मोहकी शत्रताको जीतना आपके ही सिद्ध है अन्याय करनेवाले अन्य लोगोंमें नहीं॥५७५ ॥ समस्त जगत्के द्वारा वन्दना करने योग्य देवाधिदेव श्री वर्धमान स्वामी सदा मेरे मस्तक पर विराजमान रहें और हे गणधर देव ! आप भी सदा मेरे हृदयमें विद्यमान रहें क्योंकि आपने मेरे भाग्योदयसे करुणाकर स्पष्ट वाणीके द्वारा श्रद्धाकी वृद्धि करनेवाला यह प्रथमानुयोग कहा है सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे पुरुषोंका ऐसा भाव होना स्वाभाविक ही है ॥५७६ ।। इस प्रकार जिसे आगामी कालमें मोक्ष होनेवाला है जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, जो धर्मका भार धारण करनेवाला है और जिसे भारी हर्ष उत्पन्न हो रहा है ऐसा मगधपति राजा श्रेणिक, श्री वर्धमान जिनेन्द्र और गौतम गणधरकी स्तुति कर अपने नगरमें प्रविष्ट हुआ ॥५७७ ॥ आचार्य गुणभद्र Tणभद्र कहते हैं कि व्याख्यान करनेवाले, सुननेवाले और लिखन
करनेवाले, सुननेवाले और लिखनेवालोंको इस पुराणकी संख्या अनुष्टुप् छन्दसे बीस हजार समझनी चाहिये ।। ५७८ ।। इस प्रकार भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत, आर्ष नामसे प्रसिद्ध, त्रिषष्टिलक्षण महापुराणके संग्रहमें
श्री वर्धमान स्वामीका पुराण वर्णन करनेवाला यह छिहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥७६ ।।
१ जगत: ल । २ सता इति क्वचित् । । सिद्धकृत्यं ल०। ४ धर्मधुर्यम् ख०। ५ 'अनुष्टुप्छन्दसा या चतर्विशसहस्त्रिका । पुराणे ग्रन्थक संख्या व्याख्यातभोतलेखकः॥क.. ख०, ग. ।
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