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षट्सप्ततितमं पर्व
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'क्रोलव्याघ्रमुखाश्चैवमुलूकमुखनामकाः । शाखामृगमुखा मत्स्यमुखाः कालमुखास्तथा ॥ ५०४ ॥ गोमेषमेघवक्त्राश्च विद्युदादर्शवक्त्रकाः । हस्तिवक्त्रा कुमानुष्यजा लागलविषाणिनः ॥ ५०५॥ एते च नीचका स्मादन्तरद्वीपवासिनः । म्लेच्छखण्डे पु सर्वेपु विजयार्धेषु च स्थितिः ॥ ५०६॥ तीर्थकृत्कालवद्व डिहासवत्कर्मभमिषु । इदञ्च श्रेगिकप्रश्नादिन्द्रभूतिगणाधिपः ॥ ५०७ ॥ इत्याह वचनाभीषु निरस्तान्तस्तेमस्ततिः । इहान्त्यतीर्थनाथोऽपि विहृत्य विषयान् बहून् ॥ ५०८ ॥ क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनान्तरे । बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ॥ ५०९ ॥ स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्ध निर्जरः । कृष्णकार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ॥ ५१०॥ स्वातियोगे तृतीयेद्धशुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधः समुच्छिन्नक्रियं श्रितः ॥ ५११॥ हताघातिचनुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः । गन्ता मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववाग्छितम् ॥ ५१२ ॥ तदेव पुरुषार्थस्य पर्यन्तोऽनन्तसौख्यकृत् । अथ सर्वेऽपि देवेन्द्रा वह्वीन्द्रमुकुटस्फुरत् ॥ ५१३॥ हुताशनशिखान्यस्ततद्देहा मोहविद्विषम् । अभ्यर्च्य गन्धमाल्यादिद्न्यदिव्यैर्यविधि ॥ ५१४॥ वन्दिष्यन्ते भवातीतमयैर्वन्दारवः स्तवैः । वीरनिवृतिसम्प्रासदिन एवास्तघातिकः ॥ ५१५॥ भविष्याम्यहमप्युद्यत्केवलज्ञानलोचनः । भव्यानां धर्मदेशेन विहृत्य विषयांस्ततः ॥ ५१६॥ गत्वा विपुलशब्दादिगिरी प्राप्स्यामि निर्वृतिम् । मनिर्वृतिदिने लब्धा सुधर्मः श्रुतपारगः ॥ ५१७ ॥ लोकालोकावलोकैकालोकमन्त्यविलोचनम् । तन्निर्वाणक्षणे भावी जम्बूनामाचकेवलः ॥ ५१८॥
अन्त्यः केवलिनामस्मिन्भरते स प्ररूप्यते । नन्दी मुनिस्ततः श्रेष्ठो नन्दिमिन्नोऽपराजितः ॥ ५१९॥ लम्बे कानवाले, खरगोशके समान कानवाले, घोड़े आदिके समान कानवाले, अश्वमुख, सिंहमुख, देखनेके अयोग्य महिषमुख, कोलमुख (शूकरमुख), व्याघ्रमुख, उलूकमुख, वानरमुख, मत्स्यमुख, कालमुख, गोमुख, मेषमुख, मेघमुख, विद्युन्मुख, आदर्शमुख, हस्तिमुख, पूँछवाले,
और सींगवाले ये कुभोगभूमिके मनुष्य भी नीच मनुष्य कहलाते हैं। ये सब अन्तीपोंमें रहते हैं। सब म्लेच्छखण्डों और विजयाध पर्वतोंकी स्थिति तीर्थकरोंके समयके समान होती है और वृद्धि हास सदा कर्मभूमियोंमें ही रहता है । इस प्रकार श्रेणिक राजाके प्रश्नके अनुसार इन्द्रभूति गणधरने वचन रूपी किरणोंके द्वारा अन्तःकरणके अन्धकारसमूहको नष्ट करते हुए यह हाल कहा। उन्होंने यह भी कहा कि भगवान् महावीर भी बहुतसे देशोंमें विहार करेंगे॥४६७-५०८॥ अन्तमें वे पावापुर नगरमें पहुँचेंगे वहाँ के मनोहर नामके वनके भीतर अनेक सरोवरोंके बीच में मणिमयी शिलापर विराजमान होंगे। विहार छोड़कर निर्जराको बढ़ाते हुए वे दो दिन तक वहाँ विराजमान रहेंगे और फिर कार्तिककृष्ण चतुर्दशीके दिन रात्रिके अन्तिम समय स्वातिनक्षत्र में अतिशय देदीप्यमान तीसरे शुक्लध्यानमें तत्पर होंगे। तदनन्तर तीनों योगोंका निरोधकर समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको धारण कर चारों अघातिया कोका क्षय कर देंगे और शरीररहित केवलगुण रूप होकर एक हजार मुनियोंके साथ सबके द्वारा वान्छनीय मोक्षपद प्राप्त करेंगे।५०९५१२॥ वही उनका, अनन्त सुखको करनेवाला सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा-उनके पुरुषार्थकी वही अन्तिम सीमा होगी। तदनन्तर इन्द्रादि सब देव आवेंगे और अग्नीन्द्रकुमारके मुकुटसे प्रज्वलित होनेवाली अग्निकी शिखा पर भगवान् महावीर स्वामीका शरीर रक्खेंगे। स्वर्गसे लाये हुए गन्ध, माला आदि उत्तमोत्तम पदार्थों के द्वारा मोहके शत्रुभूत उन तीर्थंकर भगवानकी विधिपूर्वक पूजा करेंगे और फिर अनेक अर्थोंसे भरी हुई स्तुतियों के द्वारा संसार-भ्रमणसे पार होनेवाले उन भगवान्की स्तुति करेंगे। जिस दिन भगवान् महावीर स्वामीको निर्वाण प्राप्त होगा उसी दिन मैं भी घातिया कर्मोको नष्ट कर केवलज्ञान रूपी नेत्रको प्रकट करनेवाला होऊँगा और भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देता हुआ अनेक देशोंमें विहार करूँगा। तदनन्तर विपुलाचल पर्वतपर जाकर निर्वाण प्राप्त करूँगा। मेरे निर्वाण जानेके दिन ही समस्त-श्रुतज्ञानके पारगामी सुधर्म गणधर भी लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञान रूपी अन्तिम लोचनको प्राप्त करेंगे और उनके मोक्ष जानेके समय ही जम्बू स्वामी केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। वह जम्बू स्वामी भरत क्षेत्रमें अन्तिम केवली कहलावेंगे।
४ कोड इत्यपि कचित् ।
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