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महापुराणे उत्तरपुराणम्
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स्तुत्यं प्रसादयितुमधिजनो विनौति
न स्वय्यदस्तव स मोहजयस्तवोऽयम् | तनार्थिनः स्तुतिरिहेश ममास्ति बाढ
स्तुत्य स्तुतिप्र गयिनोऽर्थ पराङ्मुखस्य || ५४७ ॥
येषां प्रमेयविमुखं सुमुखप्रमाणं
तेन स्तुतिजुषां विषयीभवेयुः ।
त्वं विश्वभावविहितावगमात्मकोऽर्हन्
वक्ता हि तस्य तत एव हितैषिवन्द्यः ॥ ५४८ ॥
दातासि न स्तुतिफलं समुपैत्यवश्यं
स्तोता महज्झटिति शुभ्रमयाचितोऽयम् ।
कुर्या कुतस्तव न संस्तवनं जिनेश
दैन्यातिभीरु रहमध्यफलाभिलाषी ॥ ५४९ ॥
निष्कारणं तृणलवञ्च ददद्विधीः को
लोके जिन त्वयि ददाति निरर्थकृत्त्वम् ।
मुक्तिप्रदायिनि तथापि भवन्तमेव
प्रेक्षावतां प्रथमगण्यमुशन्ति चित्रम् ॥ ५५० ॥
सर्वस्वमर्थिजनताः स्वमिह स्वकीयं
चक्रः परे निरुपधिस्थिर सत्त्वसाराः । प्रोल्लङ्घय तान् जिन वदन्ति वदान्यव
त्वां वाग्भिरेव वितरन्तमहो विदग्धाः ॥ ५५१ ॥
करता हूँ ।। ५४६ ।। हे ईश ! अर्थी लोग - कुछ पानेकी इच्छा करने वाले लोग, किसी स्तुत्य अर्थात् स्तुति करने योग्य पुरुषकी जो स्तुति करते हैं सो उसे प्रसन्न करनेके लिए ही करते हैं परन्तु यह बात आपमें नहीं है क्योंकि आप मोहको जीत चुके हैं इसलिए मैं किसी वस्तुकी आकांक्षा रखकर स्तुति नहीं कर रहा हूँ, मुझे तो सिर्फ स्तुति करने योग्य जिनेन्द्रकी स्तुति करनेका ही अनुराग है,
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बाला
"सब प्रयोजनों से विमुख हूँ ।। ५४७ ।। हे सुमुख ! जिनका प्रमाण अर्थात् ज्ञान, प्रमेय अर्थात् पदार्थ से रहित है - जो समस्त पदार्थोंको नहीं जानते हैं वे हिताभिलाषी लोगोंकी स्तुतिके विषय नहीं हो सकते । हे अर्हन् ! आप समस्त पदार्थोंको जानते हैं -- समस्त पदार्थोंका जानना ही आपका स्वरूप है और आप ही उन समस्त पदार्थों के वक्ता हैं - उपदेश देनेवाले हैं इसलिए हिताभिलाषी लोगोंके द्वारा आप ही स्तुति किये जानेके योग्य हैं । ५४८ ॥ हे जिनेन्द्र ! यद्यपि आप स्तुतिका फल नहीं देते हैं तो भी स्तुति करनेवाला मनुष्य विना किसी याचनाके शीघ्र ही स्तुतिका बहुत भारी श्रेष्ठ फल अवश्य पा लेता है इसलिए दीनता से बहुत डरनेवाला और श्रेष्ठ फलकी इच्छा करने मैं आपका स्तवन क्यों न करूँ ? ।। ५४६ ॥ हे जिनेन्द्र ! यदि इस संसार में कोई किसीके लिए विना कारण तृणका एक टुकड़ा भी देता है तो वह मूर्ख कहलाता है परन्तु आप विना किसी कारण मोक्ष लक्ष्मी तक प्रदान करते हैं ( इसलिए आपको सबसे अधिक मूर्ख कहा जाना चाहिये ) परन्तु आप बुद्धिमानों में प्रथम ही गिने जाते हैं यह महान् आश्चर्यकी बात है ।। ५५० ।। इस संसार में कितने ही अन्य लोगोंने अपना सर्वस्त्र धन देकर याचक जनोंके लिए छलरहित स्थायी धनसे श्रष्ठ बनाया है और हे जिनेन्द्र ! आप केवल वचनोंके द्वारा ही दान करते हैं फिर भी आश्चर्यकी बात है कि चतुर मनुष्य उन सबका उल्लङ्घन कर एक आपको ही उत्कृष्ट दाता कहते हैं । भाषार्थधन सम्पत्तिका दान करनेवाले पुरुष संसारमें फँसानेवाले हैं परन्तु आप वैराग्य से ओत-प्रोत उपदेश देकर जीवोंको संसार-समुद्रसे बाहर निकालते हैं अतः सच्च और उत्कृष्ट दानी आप ही हैं ।। ५५१ ।।
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