Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 597
________________ षट्सप्ततितमं पर्व ५६६ भव्यात्मनां परमनिवृतिसाधनार्थ त्वचेष्टितं तव न तत्र फलोपलिप्सा । तस्मात्त्वमेव जिन वागमृताम्बुवृष्ट्या सन्तर्पयन् जगदकारणबन्धुरेकः ॥ ५६१ ॥ जीवोऽयमुद्यदुपयोगगुणोपलक्ष्य स्तस्योपहन्त ननु घातिचतुष्कमेव । घातेन तस्य जिन पुष्कललक्षणस्त्वं स्वां तादृशं वद वदन्तु कथं न सिद्धम् ॥ ५६२ ॥ साधारणास्तव न सन्तु गुणास्तदिष्टं दृश्यो न तेषु जिन सत्सु गुणेषु साक्षात् । दृष्टे भवेद्भवति भक्तिरसौ ययाय 3 चेचीयते स्रवति पापमपि ४प्रभूतम् ॥ ५६३ ॥ देवावगाड़मभवचव मोहघाता च्छूद्धानमावृतिहतेः परमावगाढम् । आये चरित्रपरिपूतिरथोचरत्र विश्वावबोधविभुतासि ततोऽभिवन्धः ।। ५६४ ॥ ध्वस्तं त्वया प्रबलपापबलं परन्च प्रोभिन्नपालिजलवत्प्रवहत्यजनम् । श्रद्धादिभिस्मिभिरभूत्रितयी च सिद्धिः सद्धर्मचक्रसुभवद्भुवनैकनाथः ॥ ५६५॥ देहो विकाररहितस्तव वाग्यथार्थ हक्छ्रोत्रनेत्रविषयत्वमुपेत्य सथः । है सो जान नहीं पड़ता है ॥ ५६० ॥ हे जिनेन्द्र ! आपकी जितनी चेष्टाएँ हैं वे सभी भक्त जीवोंके मोक्ष सिद्ध करनेके लिए हैं परन्तु आपको उसके किसी फलकी इच्छा नहीं है इसलिए कहना पड़ता है कि वचनामृतरूपी जलकी वृष्टिसे संसारको तृप्त करते हुए एक आप ही अकारण बन्धु हैं ।।५६१।। यह जीव प्रकट हुए उपयोगरूपी गुणोंके द्वारा जाना जाता है और उस उपयोगको नष्ट करनेवाले चार घातिया कर्म हैं। उन घातिया कोंको नष्ट करनेसे आपका उपयोगरूपी पूर्ण लक्षण प्रकट हो चुका है इसलिए हे जिनेन्द्र ! आप ही कहिए कि ऐसे आत्मलक्षणवाले आपको सिद्ध कैसे न कहें ? ॥ ५६२ ॥ हे भगवन् ! आपके गुण साधारण नहीं हैं यह मैं मानता हूँ परन्तु उन असाधारण गुणोंके रहते हुए भी आप साक्षात् दिखते नहीं हैं यह आश्चर्य है, यदि आपके साक्षात् दर्शन हो जावें तो वह भक्ति उत्पन्न होती है जिसके कि द्वारा बहुत भारी पुण्यका संचय होता है और बहुत भारी पाप नष्ट हो जाते हैं ।। ५६३ ।। हे देव ! मोहनीय कर्मका घात होनेसे आपके अवगाढ सम्यग्दर्शन हुआ था और अब ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणका क्षय हो जानेसे परमावगाढ सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है। गाढ़ सम्यग्दर्शनमें चारित्रकी पूर्णता होती है और परमावगाढ़ सम्यग्दर्शनमें समस्त पदार्थों के जाननेकी सामर्थ्य होती है इस तरह दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणकी पूर्णताके कारण आप वन्दनीय हैं-वन्दना करनेके योग्य हैं।। ५६४ ॥ हे भगवन् ! आपने प्रबल धातिया कोंकी सेनाको तो पहले ही नष्ट कर दिया था अब अघातिया कर्म भी, जिसका बाँध टूट गया है ऐसे सरोवरके जलके समान निरन्तर बहते रहते हैं-खिरते जाते हैं। हे नाथ ! इस तरह व्यवहार-रत्नत्रयके द्वारा आपको निश्चय-रत्नत्रयकी सिद्धि प्राप्त हुई है और समीचीन धर्मचक्रके द्वारा आप तीनों लोकोंके एक स्वामी हुए हैं।॥ ५६५ ।। हे कामदेवके मानको मर्दन करनेवाले प्रभो ! आपका शरीर विकारसे रहित है १ तदिष्टो म०, ख० । २ यस्योन्नतेषु ग०, क०, घ० । दृष्टो नु तेषु खः । ३ पुण्यम् । ४ प्रचुरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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