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महापुराणे उत्तरपुराणम् साधिका पूर्वकोव्यायु:स्थितियतेषु केषुचित् । वर्षेषु निर्विशेषान जघन्यायंजनस्थितिः ॥ ४९१॥ ततः पञ्चमकालेऽपि मध्यभोगभुवः स्थितिः । षष्टकालेऽपि विज्ञेया वर्यभोगभुवः स्थितिः॥ १९२ ॥ एवं शेषनवस्थानकर्मभूमिषु वर्तनम् । एवं कल्पस्थितिः प्रोक्का भूतेष्वपि च भाविषु ॥ १९३॥ एष एव विधिज्ञेयः कल्पेषु जिनभाषितः । विदेहेषु च सर्वेषु पञ्चचापशतोच्छूितिः ॥ ४९४ ॥ मनुष्याणां परञ्चायुः 'पूर्वकोटिमितं मतम् । तत्र तीर्थकृतश्चक्रवतिनो रामकेशवाः ॥ ४९५ ॥ पृथक्पृथग्बहुत्वेन शतं षष्ठ्यधिक स्मृताः । अल्पत्वेनापि ते विंशतिर्भवन्ति पृथक्पृथक् ॥ ४९६ ॥ उत्कृष्टेन शतं सप्ततिश्च स्युः सर्वभूमिजाः । उत्पद्यन्ते नरास्तत्र चतुर्गतिसमागताः ॥ ४९७ ॥ गतीर्गच्छन्ति पञ्चापि निजाचारवशीकृताः। भोगभूमिषु सर्वासु कर्मभूमिसमुद्भवाः ॥ ४९८ ॥ मनुष्याः सज्ञिनस्तिर्यश्चश्व यान्त्युपपादनम् । आदिकल्पद्वये भावनादिदेवेषु च त्रिषु ॥ ४९९ ॥ जीवितान्ते नियोगेन सर्वे ते देवभाविनः । मनुष्येषूत्तमा भोगभूमिजाः कर्मभूभुवः ॥ ५.० ॥ निजवृत्तिविशेषेण त्रिविधास्ते प्रकीर्तिताः । शलाकापुरुषाः कामः खगाश्चान्ये सुरार्चिताः ॥ ५० ॥ 'सन्तो दिव्यमनुष्याः स्युः षष्ठकालाः कनिष्ठकाः । एकोरुकास्तथा भाषाविहीनाः ३शङ्ककर्णकाः ॥५.२॥
कर्णप्रावरणालम्बशशकावादिकर्णकाः । अश्वसिंहमुखाश्चान्ये दुष्प्रेक्ष्या महिषाननाः ॥ ५.३॥ प्रारम्भमें मनुष्योंकी ऊँचाई पाँचसौ धनुष होगी और कुछ अधिक एक करोड़ वर्षकी आयु होगी। इसके बाद कुछ वर्ष व्यतीत हो जानेपर यहाँपर जघन्यभोगभूमिके आर्य जनोंके समान सब स्थिति
आदि हो जावेंगी।। ४६०-४६१ ।। फिर पश्चम काल आवेगा । उसमें मध्यम भोगभूमिकी स्थिति होगी और उसके अनन्तर छठवाँ काल आवेगा उसमें उत्तम भोगभूमिकी स्थिति रहेगी॥४९२ ।। जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रके सिवाय और जो बाकी नौ कर्मभूमियाँ हैं उनमें भी इसी प्रकारकी प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार जो काल हो चुके हैं और जो आगे होंगे उन सबमें कल्पकालकी स्थिति बतलाई गई है अर्थात् उत्सर्पिणीके दश कोड़ा-कोड़ी सागर और अवसर्पिणीके १० कोड़ा-कोड़ी सागर दोनों मिलाकर बीस कोड़ा-कोड़ी सागरका एक कल्पकाल होता है और यह सभी उत्सर्पिणियों तथा अवसर्पिणियों में होता है। सभी विदेहक्षेत्रोंमें मनुष्योंकी ऊंचाई पाँचसौ धनुष प्रमाण होती है और आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व प्रमाण रहती है। वहाँ तीर्थक्कर, चक्रवर्ती, बलभद्र और नारायण अधिकसे अधिक हों तो प्रत्येक एक सौ साठ, एक सौ साठ होते हैं और कमसे कम हों तो प्रत्येक बीस-बीस होते हैं। भावार्थ-अढाई द्वीपमें पाँच विदेह क्षेत्र हैं और एक-एक विदेहक्षेत्रके बत्तीस-बत्तीस भेद हैं इसलिए सबके मिलाकर एक सौ साठ भेद हो जाते हैं, यदि तीर्थङ्कर आदि शलाकापुरुष प्रत्येक विदेह क्षेत्रमें एक-एक होवें तो एक सौ साठ हो जाते हैं और कमसे कम हों तो एक-एक महाविदेह सम्बधी चार-चार नगरियोंमें अवश्यमेव होनेके कारण बीस ही होते हैं ॥४६३-४६६ ॥ इस प्रकार सब कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए तीर्थकर आदि महापुरुष अधिकसे अधिक हों तो एक सौ सत्तर हो सकते हैं। इन भूमियोंमें चारोंगतियोंसे आये हुए जीव उत्पन्न होते हैं और अपने-अपने आचारके वशीभूत होकर मोक्षसहित पाँचो गतियों में जाते हैं। सभी भोग-भूमियोंमें, कर्मभूमिज मनुष्य और संज्ञी तिर्यश्च ही उत्पन्न होते हैं । भोगभूमिमें उत्पन्न हुए जीव म
मरकर पहले और दूसरे स्वर्गमें अथवा भवनवासी आदि तीन निकायोंमें उत्पन्न होते हैं। यह नियम है कि भोगभूमिके सभी मनुष्य और तिर्यश्च नियमसे देव ही होते हैं । भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य उत्तम ही होते हैं और कर्मभूमिमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य अपनी-अपनी वृत्तिकी विशेषतासे तीन प्रकारके कहे गये है-उत्तम, मध्यम और जघन्य। शलाकापुरुष, कामदेव तथा विद्याधर आ देवपूजित सत्पुरुष हैं वे दिव्य मनुष्य कहलाते हैं तथा छठवें कालके मनुष्य कहलाते हैं। इनके सिवाय एक पैरवाले, भाषा रहित, शङ्कुके समान कानवाले, कानको ही ओढ़ने-बिछानेवाले अर्थात्
१ पूर्वकोटीपरं मतम् क, ख, ग, घ०। २ सन्तो दिव्यमनुष्या स्युः स्पष्ट कालाः कनिष्ठकाः। क., ग०, १० । सन्तो दिव्यमनुष्याश्च षष्ठिकानाः कनिष्ठकाः म सन्तो दिव्यमनुष्यासु षष्ठकालाः कनिष्ठकाः नः। ३ शङ्ख इत्यपि कचित् ।
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