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महापुराणे उत्तरपुराणम्
तावद्दिननिबन्धेन निविराममहर्दिवम् । पयः पयांसि दास्यन्ति धात्री त्यक्ष्यति रूक्षताम् ॥ ४५५ ॥ निबन्धनवर्णादिगुणं चावाप्स्यति क्रमात् । तथैवामृतमेघाश्च तावदिवसगोचराः ॥ ४५६ ॥ वृष्टिमापातयिष्यन्ति निष्पत्स्यन्तेऽत्र पूर्ववत् । भोषध्यस्तरवो गुल्मतृणादीन्यप्यनन्तरम् ॥ ४५७ ॥ ततो रसाधिकाम्भोदवर्षंणात्षसोद्भवः । यस्यामादौ बिलादिभ्यो निर्गत्य मनुजास्तदा ॥ ४५८ ॥ तेषां रसोपयोगेन जीविष्यन्त्याप्तसम्मदाः । वृद्धिर्गलति कालेऽस्मिन् क्रमात्प्राग्हासमात्मनाम् ॥ ४५९ ॥ तन्वादीनां पुनर्दुष्पमासमायाः प्रवेशने । आयुर्विंशतिवर्षाणि नराणां परमं मतम् ॥ ४६० ॥ साधारत्नित्रयोत्सेधदेहानां वृद्धिमीयुषाम् । प्राक्प्रणीतप्रमाणेऽस्मिन् काले बिमलबुद्धयः ॥ ४६१ ॥ षोडशाविर्भविष्यन्ति क्रमेण कुलधारिणः । प्रथमस्य मनागूना तनुश्चतुररत्निषु ॥ ४६२ ॥ अन्त्यस्यापि तनुः सप्तारत्निभिः सम्मिता भवेत् । आदिमः कनकस्तेषु द्वितीयः कनकप्रभः ॥ ४६३ ॥ ततः कनकराजाख्यश्चतुर्थः कनकध्वजः । २ कनकः पुङ्गवान्तोऽस्मान्नलिनो नलिनप्रभः ॥ ४६४ ॥ ततो नलिनराजाख्यो नवमो नलिनध्वजः । पुङ्गवान्तश्च नलिनः पद्मः पद्मप्रभाह्वयः ॥ ४६५ ॥ पद्मराजस्ततः पद्मध्वजः पद्मादिपुङ्गवः । महापद्मश्च विज्ञेयाः प्रज्ञापौरुषशालिनः ॥ ४६६ ॥ एतेषां क्रमशः काले शुभभावेन वर्धनम् । महीसलिलकालानां धान्यादीनाञ्च सङ्गतम् ॥ ४६७ ॥ मनुष्याणामनाचारत्यागो योग्यासभोजनम् । काले परिमिते मैत्री लज्जा सत्यं दया दमः ॥ ४६८ ॥ सन्तुष्टिर्विनयक्षान्ती रागद्वेषायतीव्रता । इत्यादि साधुवृत्तञ्च वह्निपाकेन भोजनम् ॥ ४६९ ॥ द्वितीयकाले वर्तेत तृतीयस्य प्रवर्तने । सप्तारत्निप्रमाणाङ्गाः खद्वये काब्दायुषो नराः ॥ ४७० ॥ ततस्तीर्थकरोत्पत्तिस्तेषां नामाभिधीयते । आदिमः श्रेणिकस्तस्मात्सुपार्श्वदङ्कज्ञकः ॥ ४७१ ॥
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होगी। पहले ही क्षीर जातिके मेघ सात-सात दिन बिना विश्राम लिये जल और दूधकी वर्षा करेंगे जिससे पृथिवी रूक्षता छोड़ देगी और उसीसे पृथिवी अनुक्रमसे वर्णादि गुणों को प्राप्त होगी। इसके बाद अमृत जातिके मेघ सात दिन तक अमृतकी वर्षा करेंगे जिससे औषधियाँ, वृक्ष, पौधे और घास पहले के समान निरन्तर होंगे ॥ ४५४-४५७ ।। तदनन्तर रसाधिक जातिके मेघ रसकी वर्षा करेंगे जिससे छह रसोंकी उत्पत्ति होगी। जो मनुष्य पहले बिलोंमें घुस गये थे वे अब उनसे बाहर निकलेंगे और उन रसोंका उपयोग कर हर्षसे जीवित रहेंगे। ज्यों-ज्यों कालमें वृद्धि होती जावेगी त्यों-त्यों प्राणियोंके शरीर आदिका ह्रास दूर होता जावेगा - उनमें वृद्धि होने लगेगी ।। ४५८ - ४५६ ॥ तदनन्तर दुःषमा नामक कालका प्रवेश होगा उस समय मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु बीस वर्षकी और शरीरकी ऊँचाई साढ़े तीन हाथकी होगी । इस कालका प्रमाण भी इक्कीस हजार वर्षका ही होगा । इसमें अनुक्रमसे निर्मल बुद्धिके धारक सोलह कुलकर उत्पन्न होंगे। उनमेंसे प्रथम कुलकरका शरीर चार हाथमें कुछ कम होगा और अन्तिम कुलकरका शरीर सात हाथ प्रमाण होगा। कुलकरोंमें सबसे पहला कुलकर कनक नामका होगा, दूसरा कनकप्रभ, तीसरा कनकराज, चौथा कनकध्वज, पाँचवाँ कनकपुंगव, छठा नलिन, सातवाँ नलिनप्रभ, आठवाँ नलिनराज, नौवाँ नलिनध्वज, दशवाँ नलिनपुंगव, ग्यारहवाँ पद्म, बारहवाँ पद्मप्रभ, तेरहवाँ पद्मराज, चौदहवाँ पद्मध्वज, पन्द्रहवाँ पद्मपुंगव और सोलहवाँ महापद्म नामका कुलकर होगा । ये सभी बुद्धि और बल से सुशोभित होंगे || ४६०-४६६ ॥ इनके समय में क्रमसे शुभ भात्रोंकी वृद्धि होनेसे भूमि, जल तथा धान्य आदिकी वृद्धि होगी ।। ४६७ ॥ मनुष्य अनाचारका त्याग करेंगे, परिमित समयपर योग्य भोजन करेंगे। मैत्री, लज्जा, सत्य, दया, दमन, संतोष, विनय, क्षमा, रागद्वेष आदिकी मन्दता आदि सज्जनोचित चारित्र प्रकट होंगे और लोग अमें पकाकर भोजन करेंगे ।। ४६८ - ४६६ ।। यह सब कार्य दूसरे कालमें होंगे। इसके बाद तीसरा काल लगेगा । उसमें लोगों का शरीर सात हाथ ऊँचा होगा और आयु एक सौ बीस वर्षकी होगी ॥ ४७० ।। तदनन्तर इसी कालमें तीर्थंकरों की उत्पत्ति होगी। जो जीव तीथकर होंगे उनके नाम इस प्रकार हैं-- श्रेणिक १, सुपार्श्व २, उदङ्क ३, प्रोष्ठिल ४, कटप्रू ५, क्षत्रिय ६, श्रेष्ठी ७, शङ्ख ८,
१ सदसोद्भवः ल० । २ कनकपुङ्गवा ल० । ३ प्रजाः पौरषेयशालिनः ल० (१) । ४ संततम् ल० ।
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