________________
षट्सप्ततितम पर्ष
५५६ स्यक्कसर्वसदाचाराः क्षुत्पिपासादिवाधिताः । सरोगा निष्प्रतीकारा दुःखास्वादैकवेदिनः ॥ ४४६ ॥ एवं गच्छति कालेऽस्मिन्नेतस्य परमावधौ। निश्शेषशोषमेताम्बु शरीरमिव संक्षयम् ॥ ४४७ ॥ 'अतिरौक्ष्या धरा तत्र भाविनी स्फुटिता स्फुटम् । विनाशचिन्तयेवांघ्रिपाश्च प्रम्लानयष्टयः ॥४४८॥ प्रलयः प्राणिनामेवं प्रायेणोपजनिष्यते । सुरसिन्धाश्च सिन्धोश्च खेचराद्रेश्च वेदिकाः । ४५९ ।। श्रित्वा नदीसमुद्भूतमीनमण्डूककच्छपान् । कृत्वा कर्कटकादींश्च निजाहारान्मनुष्यकाः ॥ ४५०॥ विष्टा क्षुद्रबिलादीनि द्वासप्ततिकुलोद्भवाः । हीना दीना दुराचारास्तदा स्थास्यन्ति केचन ॥ ४५१॥ सरसं विरसं तीक्ष्णं रूक्षमुष्णं विषं विषम् । 'क्षार मेघाः क्षरिष्यन्ति सप्त सप्तदिनान्यलम् ॥ १५२ ।। ततो धरण्या वैषम्यविगमे सति सर्वतः। भवेचित्रा समा भूमिः समासात्रावसपिणी ॥ १५ ॥ इतोऽतिदुषमोत्सपिण्याः पूर्वोक्तप्रमाणभाक् । वतिष्यति प्रजावृद्धयै ततः क्षीरपयोधराः ॥ ४५ ॥
रहेंगे, निरन्तर रोगी होंगे, रोगका कुछ प्रतिकार भी नहीं कर सकेंगे और केवल दुःखके स्वादका ही अनुभव करनेवाले होंगे ॥४४४-४४६॥ इस प्रकार समय बीतने पर जब अतिदुःषमा कालका अन्तिम समय आवेगा तब समस्त पानी सूख जावेगा, और शरीरके समान ही नष्ट हो जावेगा ॥४४७॥ पृथिवी अत्यन्त रूखी-रूखी होकर जगह-जगह फट जावेगी, इन सब चीजोंके नाश हो जानेकी चिन्तासे ही मानो सब वृक्ष सूखकर मलिनकाय हो जावेंगे ॥ ४४८ ।। प्रायः इस तरह समस्त प्राणियोंका प्रलय हो जावेगा। गङ्गा सिन्धु नदी और विजयाध पर्वतकी वेदिकापर कुछ थोडेसे मनुष्य विश्राम लेंगे और वहाँ नदीके मुखमें उत्पन्न हुए मछली, मेंढक, कछए और केंकड़ा
आदिको खाकर जीवित रहेंगे। उनमेंसे बहत्तर कुलोंमें उत्पन्न हुए कुछ दुराचारी दीन-हीन जीव छोटे-छोटे बिलोंमें घुसकर ठहर जावेंगे ।। ४४६-४५०॥ तदनन्तर मेघ सात-सात दिन तक क्रमसे सरस, विरस, तीक्ष्ण, रूक्ष, उष्ण, विष-रूप और खारे पानीकी वषा करेंगे। इसके बाद पृथिवीकी विषमता (ऊँच-नीचपना) नष्ट हो जायगी, सब ओर भूमि चित्रा पृथिवीके समान हो जावेगी और यहीं पर अपसर्पिणी कालकी सीमा समाप्त हो जायगी ।। ४५१-४५३ ।। इसके आगे उत्सर्पिणी कालका अतिदुःषमा काल चलेगा, वह भी इक्कीस हजार वर्षका होगा। इसमें प्रजाकी वृद्धि
१ अतिरक्षाघरा ल० । २ बारमेराः ल ।
* त्रिलोकसारमें नेमिचन्द्राचार्य ने अतिदुःषमा कालके अन्त में होनेवाले प्रलयका वर्णन इस प्रकार किया है
संवत्तयणामणिलो गिरि तरुभूपहुदि चुण्णणं करिय। भमदि दिसंतं जीवा मरंति मुच्छति छहते ॥८६॥ खग गिरि गंग दुवेदी खुद्दपिलादि विसति श्रासण्णा । णेति दया खचरसुरा मणुस्स जुगलादि बहुजीवे ॥ ८६५ ॥ छहमचरिमे होति मरुदादी सत्तसत्त दिवसवही ।
अदिसीद खार विसपरुसग्गीरजधूमवरिसायो || ८६६ ॥ अर्थात्-छठवें कालके अन्त समय संवर्तक नामका पवन चलता है जो पर्वत, वृक्ष, पृथिवी आदिको चूर्ण कर अपने क्षेत्रकी अपेक्षा दिशाओं के अन्त तक भ्रमण करता है। उस पवनके श्रापातसे वहाँ रहनेवाले जीव मच्छित होकर मर जाते हैं। विजयाध पर्वत, गङ्गा सिन्धु नदी, इनकी वेदिका और इनके शुद्ध विल श्रादिकमें वहाँके निकटवर्ती प्राणी घुस जाते हैं तथा कितने ही दयालु विद्याधर और देव, मनुष्य युगलको श्रादि लेकर बहुतसे जीवोंको बाधारहित स्थानमें ले जाते हैं। छठवें कालके अन्तमें पवन श्रादि सात वर्षा सात सात दिन पर्यन्त होती हैं। वे ये हैं-१ पवन २ अन्यन्त शोत ३ क्षाररस ४ विष ५ कठोर अग्नि ६ धूलि और ७ धुओं। इन सात रूप परिगत पुद्रलोकी वर्षा ६ दिन तक होती है।
उत्तर पुराणके ४५१वें श्लोकमें जो क्रम दिया है उसका क्रम कुछ दसरा ही है। पं० नालारामजीने श्लोकका जो अनुवाद दिया है वह मालूम होता है त्रिलोकसारके आधार पर दिया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org