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षट्सप्ततितम पर्व धर्मो माता पिता धर्मो धर्मखाताभिवर्धकः । धर्ता भवभृतां धर्मो निर्मले निश्चले पदे ॥४१७॥ धर्मध्वंसे सतां ध्वंसस्तस्माधर्मद्रहोऽधमान् । निवारयन्ति ये सन्तो रक्षितं तैः सतां जगत् ॥ १८॥ निमित्तैरष्टधाप्रोक्तैस्तपोभिर्जनरजनैः । धर्मोपदेशनैरन्यवादिदातिशातनैः ॥ ४१९ ॥ नृपचेतोहरैः श्रव्यैः काव्यैः शब्दार्थसुन्दरैः। सद्भिः शौर्येण वा कार्य शासनस्य प्रकाशनम् ॥ ४२ ॥ चिन्तामणिसमाः केचित्प्रार्थितार्थप्रदायिनः । दुर्लभा धीमतां पूज्या धन्या धर्मप्रकाशकाः ॥ ४२१ ॥ रुचिः प्रवर्तते यस्य जैनशासनभासने । हस्ते तस्य स्थिता मुक्तिरिति सूत्रे निगद्यते ॥ १२२ ॥ स शाब्दः स हि तर्कज्ञः स सैद्धान्तः स सतपाः । यः शासनसमुदासीन चेत्कि तैरनर्थकैः ॥ ४२३ ॥ भास्वतेव जगयेन भासते जैनशासनम् । तस्य पादाम्बुजद्वन्द्वं 'ध्रियते मूग्नि धार्मिकः ॥ ४२४ ॥ उदन्वानिव रत्नस्य मलयश्चन्दनस्य वा । धर्मस्य प्रभवः श्रीमान् पुमान् शासनभासनः॥ ४२५ ॥ कण्टकानिव राज्यस्य नेता धर्मस्य कण्टकान् । सदोद्धरतिसोद्योगो यः स लक्ष्मीधरो भवेत् ॥ ४२६ ॥ प्रमदप्रसवाकीर्णे मनोरले महानटः । नटताजैनसद्धर्मभासनाभिनयो मम ॥ ४२७ ॥ तनूजः कल्किराजस्य बुद्धिमानजितञ्जयः । पल्ल्या वालनया साधं यात्येनं शरणं सुरम् ॥ ४२८ ॥ सम्यग्दर्शनरमञ्च महाघ स्वीकरिष्यति । जिनेन्द्रधर्ममाहात्म्यं दृष्ट्रा सुरविनिर्मितम् ॥ ४२९ ॥
तदा प्रभृति दुर्दर्पस्त्याज्यः पाषण्डिपापिभिः। कञ्चित्कालं जिनेन्द्रोक्तधर्मो वतिष्यतेतराम् ॥ ३० ॥ चतुर्मुख रानाको मारकर धर्मकी प्रभावना करेगा ।। ४१६ ।। इस संसारमें धर्म ही प्राणियोकी माता है, धर्म ही पिता है, धर्म ही रक्षक है, धर्म ही बढ़ानेवाला है, और धर्म ही उन्हें निर्मल तथा निश्चल मोक्ष पदमें धारण करनेवाला है ॥४१७ ॥ धर्मका नाश होनेसे सजनोंका नाश होता है इसलिए जो सज्जन पुरुष हैं वे धर्मका द्रोह करनेवाले नीच पुरुषोंका निवारण करते ही हैं और ऐसे ही सत्पुरुषों से सज्जन-जगत्की रक्षा होती है ॥४१८॥ आठ प्रकारके निमित्तज्ञान, तपश्चरण करना, मनुष्योंके मनको प्रसन्न करनेवाले धर्मोपदेश देना, अन्यवादियोंके अभिमानको चूर करना, राजाओंके चित्तको हरण करनेवाले मनोहर तथा शब्द और अर्थसे सुन्दर काव्य बनाना, तथा शूरवीरता दिखानाइन सब कार्योंके द्वारा सज्जन पुरुषोंको जिन-शासनकी प्रभावना करनी चाहिये ॥ ४१६-४२० ।। चिन्तामणि रत्नके समान अभिलषित पदार्थोंको देकर धर्मकी प्रभावना करनेवाले, बुद्धिमानोंके द्वारा पूज्य धन्य पुरुष इस संसारमें दुर्लभ हैं ॥४२१ ॥ जैन-शासनकी प्रभावना करनेमें जिसकी रुचि प्रवर्तमान है मानो मुक्ति उसके हाथमें ही स्थित है ऐसा जिनागममें कहा जाता है। ४२२ ।। जो जिन-शासनकी प्रभावना करनेवाला है वही वैयाकारण है, वही नैयायिक है, वही सिद्धान्तका ज्ञाता है और वही उत्तम तपस्वी है। यदि वह जिन-शासनकी प्रभावना नहीं करता है तो इन व्यर्थकी उपाधियोंसे क्या लाभ है ? ॥ ४२३ ॥ जिस प्रकार सूर्यके द्वारा जगत् प्रकाशमान हो उठता है उसी प्रकार जिसके द्वारा जैन शासन प्रकाशमान हो उठता है उसके दोनों चरणकमलोंको धर्मात्मा अपने मस्तक पर धारण करते हैं ।। ४२४ ॥ जिस प्रकार समुद्र रत्नोंकी उत्पत्तिका कारण है और मलयगिरि चन्दनकी उत्पत्तिका स्थान है उसी प्रकार जिन-शासनकी प्रभावना करनेवाला श्रीमान् पुरुष धर्मकी उत्पत्तिका कारण है ॥४२५ ॥ जिस प्रकार राजा राज्यके कंटकोंको उखाड़ फेंकता है उसी प्रकार जो सदा धर्मके कंटकोंको उखाड़ फेंकता है और सदा ऐसा ही उद्योग करता है वह लक्ष्मीका धारक होता है ॥ ४२६ ।। आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि हर्ष-रूपी फूलोंसे व्याप्त मेरे मन-रूपी रङ्गभूभिमें जिनेन्द्र प्रणीत समीचीन धर्मकी प्रभावनाका अभिनय रूपी महानट सदा नृत्य करता रहे ॥ ४२७॥
___ तदनन्तर उस कल्किका अजितंजय नामका बुद्धिमान पुत्र, अपनी बालना नामकी पन्नीके साथ उस देवकी शरण लेगा तथा महामूल्य सम्यग्दर्शन रूपीरत्न स्वीकृत करेगा । देवके द्वारा किया
धर्मका माहात्म्य देखकर पापी पाखण्डी लोग उस समयसे मिथ्या अभिमान छोड़ देंगे और जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा हुआ धर्म कुछ काल तक अच्छी तरह फिरसे प्रवर्तमान होगा ।।४२८
१ ध्रियन्ता मूर्ध्नि धार्मिकाः ल । २ चेलकया इति क्वचित् ।
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