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महापुराणे उत्तरपुराणम् ताच खेहेन तत्कर्म कुर्वती वीक्ष्य विस्मयात् । ते राजसूनवः सर्वे तन्मन्त्रादिकमस्मरन् ॥ ६३३॥ अथ तस्माद्वनाद्वहमागतो गुणमालया। मातुः पितुश्च जीवन्धरागतिः कथिता मिथः ॥ ६३४ ॥ विवाहविधिना तौ च तां तस्याकुरुतां प्रियाम् । दिनानि कानिचिरात्र स्थित्वा जीवन्धरस्तया ॥ ६३५ ॥ सुखानि सह भुजानः सर्वबन्धुसमन्वितः । जनप्रस्तूयमानोरुभाग्यो गन्धगज गिरिम् ॥ ६३६ ॥ विजयादि समारुह्य चतुरङ्गबलावृतः। गृहं गन्धोत्कटाख्यस्य प्राविशत्परमोदयः ॥ ६३७ ॥ तदुत्सवं समाकये स काष्टाङ्गारिकः ऋधा । पश्य वैश्यात्मजो मत्तो मनाक्च न बिभेति मत् ॥ ६३८ ॥ इति प्रकाशकोपोऽभूचद्वीक्ष्य सचिवोत्तमाः । जीवन्धरकुमारोऽयं दैवादाविष्कृतोदयः॥ ६३९ ॥ गन्धर्वदत्तया साक्षालक्षयेव समुपाश्रितः । यक्षेण कृतसंवृद्धिमित्रेणाव्यभिचारिणा ॥ ६४०॥ मधुरादिसहायैश्च सहितो 'यत्ततो महान् । अभेद्यविक्रमस्तेन' विग्रहो नैव युज्यते ॥ ६४१॥ बलिना सह युद्धस्य हेतुः कोऽपि न विद्यते । इत्यादियुक्तिमद्वाग्भिस्तमाशु समशीशमन् ॥ ६४२ ॥ इदमन्यदितः किञ्चित्प्रस्तुतं प्रतिपाद्यते । विदेहविषये ख्यातं विदेहाख्यं पुरं परम् ॥ ६४३ ॥ गोपेन्द्रो भूपतिस्तस्य पाता पातितविद्विषः । तुक्पृथिव्यादिसुन्दया राश्यां रत्नवती सती ॥ ६४४ ॥ चन्द्रकव्यधने दक्षं मालयालङ्करोग्यहम् । नेच्छाम्यन्यं पति कञ्चिदकरोदिति सङ्गरम् ॥ ६४५॥ तज्ज्ञावास्याः पिता चापवेदवेद्यदितोदितः । जीवन्धरोऽद्य तत्कन्यामिमां तत्सनिधि नये ॥ ६४६ ॥ इति राजपुरं गत्वा सकन्यः सहसाधनः । घोषणां कारयामास स्वयंवरविधि प्रति ॥ ६४७॥
तदघोषणां समाकये सर्वे भूखेचरेश्वराः । कन्यापरिग्रहायायान्मंक्षु राजपुरं प्रति ॥६४८॥ स्नेह वश उसके पैर दाबने लगी। यह देख, वे सब राजकुमार आश्चर्यमें पड़ कर ब्राह्मणके मन्त्र आदिकी स्तुति करने लगे ॥ ६३२-६३३ ।। इसके बाद ब्राह्मण-वेषधारी जीवन्धर कुमार वनसे अपने घर आ गये और गुणमालाने भी अपने माता-पितासे जीवन्धर कुमारके आनेका समाचार कह दिया ॥ ६३४ ।। निदान, उसके माता-पिताने विधि-पूर्वक विवाह कर उप्ते जीवन्धर कुमारकी प्रिया बना दी। इसके बाद वह जीवन्धर कुछ दिन तक वहीं पर गुणमालाके साथ रहा और सब भाई-बन्धुओंके साथ सुखका उपभोग करता रहा । तदनन्तर सब लोग जिनके बड़े भारी भाग्यकी प्रशंसा कर रहे थे ऐसे, उत्कृष्ट वैभवको धारण करनेवाले जीवन्धर कुमारने विजयगिरि नामक गन्धगज पर सवार होकर चतुरङ्ग सेनाके साथ गन्धोत्कटके घरमें प्रवेश किया ॥६३५-६३६॥ इस उत्सवकी बात सुनकर काष्ठाङ्गारिक बहुत कुपित हुआ। वह कहने लगा कि देखो उन्मत्त हुआ यह वैश्यका लड़का मुझसे कुछ भी नहीं डरता है । इस प्रकार कहकर वह प्रकट रीतिसे क्रोध करने लगा। यह देख, श्रेष्ठ मंत्रियोंने उसे समझाया कि ये जीवन्धर कुमार हैं, पुण्यके उदयसे इन्हें अभ्युदयकी प्राप्ति हुई है, साक्षात् लक्ष्मीके समान गन्धर्वदत्तासे सहित हैं, यक्ष रूपी अखण्ड मित्रने इनकी वृद्धि की है, मधुर आदि अनेक मित्रोंसे सहित हैं अतः महान हैं और अजेय पराक्रमके धारक हैं इसलिए इनके साथ द्वेष करना योग्य नहीं है । फिर बलवान्के साथ युद्ध करनेका कोई कारण भी नहीं है। इत्यादि युक्ति-पूर्ण वचनोंके द्वारा मन्त्रियोंने काष्ठाङ्गारिकको शीघ्र ही शान्त कर दिया ॥ ६३७-६४३॥
सुधर्माचार्य राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि अब इससे भिन्न एक दूसरी प्रकृत कथा और कहता हूं। विदेह देशमें एक विदेह नामका प्रसिद्ध नगर है। राजा गोपेन्द्र उसकी रक्षा करते हैं, शत्रुओंको नष्ट करनेवाले राजा गोपेन्द्रकी रानीका नाम पृथिवी सुन्दरी है और उन दोनोके एक रत्नवती नामकी कन्या है। रत्नवतीने प्रतिज्ञा की थी कि जो चन्द्रक वेधमें चतुर होगा मैं उसे ही मालासे अलंकृत करूँगी-अन्य किसी पुरुषको अपना पति नहीं बनाऊँगी। कन्याकी ऐसी प्रतिज्ञा जानकर उसके पिताने विचार किया कि इस समय धनुर्वेदको जाननेवाले और अतिशय ऐश्वर्यशाली जीवन्धर कुमार ही हैं अतः उनके पास ही यह कन्या लिये जाता हूँ। ऐसा विचार कर वह राजा कन्याको साथ लेकर अपनी सब सेनाके साथ-साथ राजपुर नगर पहुंचा और वहाँ जाकर उसने स्वयंवर विधिकी घोषणा करा दी॥ ६४४-६४७॥ उस घोषणाको सुनकर सभी भूमिगोचरी और विद्याधर
१ यत्नतो ल०।२ अमद्यविक्रमोऽनेन ल।
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