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षट्सप्ततितम पर्व मा निविष्टं समभ्येत्य महामुनिनिषेवितम् । भक्त्या प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य यथाविधि ॥१६॥ वर्णनयसमुद्भूतैविनेयैर्बहुभिः समम् । विद्युयोरेण तत्पञ्चशतभृत्यैश्च संयमम् ॥१७॥ सुधर्मगणभृत्पार्वे समचित्तो ग्रहीष्यति । कैवल्यं द्वादशाब्दान्ते भय्यन्त्यां गोतमारते ॥ ११८॥ सुधर्मा केवली जम्बूनामा च श्रतकेवली । भूत्वा पुनस्ततो द्वादशाब्दान्ते निवृतिङ्गते ॥ ११९ ॥ सुधर्मण्यन्तिम ज्ञानं जम्बूनाम्नो भविष्यति । तस्य शिष्यो भवो नाम चत्वारिंशत्समा महान् ॥१२०॥ इह धर्मोपदेशेन धरियां विहरिष्यति । इत्यवादीचदाकर्ण्य स्थितस्तस्मिन्मनावृतः ॥ १२१ ॥ देवो मदीयवंशस्य माहाल्यमिदमदभुतम् । अन्यत्रारष्टमित्युच्चैरकृतानन्दनाटकम् ॥ १२२॥ कस्मादनेन बन्धुत्वमस्येति श्रेणिकोऽभ्यधात् । गौतम विनयात्सोऽपि न्यगदरादतिस्फुटम् ॥ १२३॥ जम्बूनाम्नोऽन्वये पूर्व धर्मप्रियवणिक्पतेः । गुणदेण्याश्च नाम्नाहदासः पुत्रोऽजनिष्ट सः॥ १२५ ॥ धनयौवनदर्पण शिक्षामगणयन् पितुः। निरंकुशोऽभवत्सप्तव्यसनेषु विधेर्वशात् ॥ १२५ ॥ स दुश्चेष्टितदौर्गत्यात्सजातानुशयो मया । न श्रुता मत्पितुः शिक्षेत्यवाप्तशमभावनः ॥ १२६ ॥ किश्चित्पुण्यं समावर्ण्य ग्यन्तरत्वमुपागतः । आददेऽनावृताख्योऽयं तन सम्यक्त्वसम्पदम् ॥ १२७ ॥ इति तद्वचनप्रान्ते गौतमं मगधाधिपः । अन्वयुक्तागतः कस्मात्कि पुण्यं कृतवानयम् ॥ १२८॥ विद्यन्माली भवेऽतीते प्रभाऽस्यान्तेऽप्यनाहता । इत्यनुग्रहबुद्ध्यैव भगवानेवमब्रवीत् ॥१२॥ अस्मिन्विदेहे पूर्वस्मिन् बीतशोकायं पुरम् । विषये पुष्कलायत्यां महापमोऽस्य पालकः ॥ १३०॥
वनमालास्य देव्यस्याः सुतः शिवकुमारकः । नवयौवनसम्पन्नः सवयोभिः समं वने ॥ १३१ ॥ की शिखर पर पहुँचेगा। वहाँ विराजमान देखकर वह मेरे ही पास आवेगा । उस समय बड़े-बड़े मुनि हमारी सेवा कर रहे होंगे। वह आकर बड़ी भक्तिसे प्रदक्षिणा देगा और विधिपूर्वक नमस्कार करेगा ॥ ११५-११६ ।। तदनन्तर शान्त चित्तको धारण करनेवाला वह जम्यूकुमार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्षों में उत्पन्न हुए अनेक लोगोंके साथ तथा विद्युच्चर चोर और उसके पाँच सौ भृत्योंके साथ सुधर्माचार्य गणधरके समीप संयम धारण करेगा। जब केवलज्ञानके बारह वर्ष बाद मुझे निर्वाण प्राप्त होगा तब सुधर्माचार्य केवली और जम्बूकुमार श्रुतकेवली होंगे। उसके बारह वर्ष बाद जब सुधर्माचार्य मोक्ष चले जावेंगे तब जम्बूकुमारको केवलज्ञान होगा। जम्बू. स्वामीका भव नामका एक शिष्य होगा, उसके साथ चालीसवर्ष तक धर्मोपदेश देते हुए जम्बूस्वामी पृथिवीपर विहार करेंगे। इस प्रकार गौतम स्वामीने जम्बू स्वामीकी कथा कही। उसे सुनकर वहीं पर बैठा हुआ अनावृत नामका यक्ष कहने लगा कि मेरे वंशका यह ऐसा अद्भुत माहात्म्य है कि कहीं दूसरी जगह देखनेमें भी नहीं आता। ऐसा कहकर उसने आनन्द नामका उत्कृष्ट नाटक किया ॥ ११७-१२२ ।।
यह देखराजा श्रेणिकने बड़ी विनयके साथ गौतम गणधरसे पूछा कि इस अनावृत देवका जम्य स्वामीके साथ भाईपना कैसे है ? इसके उत्तरमें गणधर भगवान् स्पष्ट रूपसे कहने लगे॥१२३॥ कि जम्बूकुमारके वंशमें पहले धर्मप्रिय नामका एक सेठ था। उसकी गुणदेवी नामकी स्त्रीसे एक अर्हदास नामका पुत्र हुआ था ॥ १२४ ॥ धन और यौवनके अभिमानसे वह पिताकी शिक्षाको कुछ नहीं गिनता हुआ कर्मोदयसे सातों व्यसनोंमें स्वच्छन्द हो गया था। इन खोटी चेष्टाओंके कारण जब उसकी दर्गति होने लगी तब उसे पश्चात्ताप हआ और 'मैंने पिताकी शिक्षा नहीं सुनी' यह विचार करते हुए उसकी भावना कुछ शान्त हो गई ।। १२५-१२६ ।। तदनन्तर कुछ पुण्यका संचय कर वह अनावृत नामका व्यन्तर देव हुआ है। इसी पर्यायमें इसने सम्यग्दर्शन धारण किया है ॥१२७ ।। इस प्रकार जब गौतम स्वामी कह चुके तब राजा श्रेणिकने पुनः उनसे दूसरा प्रश्न किया। उसने पूछा कि हे भगवन् ! यह विद्यन्माली कहाँ से आया है? और इसने पूर्वभवमें कौनसा पुण्य किया है क्योंकि अन्तिम दिनमें भी इसकी प्रभा कम नहीं हुई है। इसके उत्तरमें गणधर भगवान् अनुप्रहकी बुद्धिसे इस प्रकार कहने लगे ॥ १२८-१२६ ।। इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें पुष्कलावती देशके अन्तर्गत एक वीतशोक नामका नगर है। वहाँ महापद्म नामका राजा राज्य करताथा। उसकी रानीका
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