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षट्सप्ततितमं पर्व
५५१ भवद्भ्यामेव तदज्ञात्वा विधेयमिति सादरम् । स एप तस्य सन्देश इति पत्रं प्रदश्य तत् ॥ ३२८ ॥ द्रव्येण बहुना साधं विमानमधिरोप्य तम् । सुप्रतिष्ठपुराभ्यर्ण गिरिं धरणिभूषणम् ॥ ३२९ ॥ सद्यः प्रापयतः स्मैतौ किं न कुर्यादयोदयः । तदागमनमाकर्ण्य भूपतिस्तस्य बान्धवाः ॥ ३३०॥ नागराश्च विभूत्यैनं सम्मदात्समुपागताः । तेभ्यः प्रोतिकरं दत्वा स्वावासं जग्मतुः सुरौ ॥ ३३१ ॥ पुरं प्रविश्य सद्रस्नैः स महीशमपूजयत् । सोऽपि सम्भाव्य तं स्थानमानादिभिरतोषयत् ॥ ३३२॥ अथान्येशुः कुमारस्य ज्यायसीं प्रियमित्रिकाम् । मातरं स्वतनूजस्य प्राप्ये परिणयोत्सवे ॥ ३३३ ॥ मात्मवषामलङ्कत रत्नाभरणसंहतिम् । गृहीत्वा रथमारुह्य महादर्शनकर्मणे ॥ ३३४ ॥ यान्तीं द्रष्टुं समायाता रथ्यायां मूकिका स्वयम् । वीक्ष्य स्वभूषासन्दोहं स्पष्टमङ्गलिसजया ॥ ३३५॥ मदीयमेतदित्युक्त्वा जनान् सा तां रथस्थिताम् । रुध्वा स्थितवती सापि प्राहैषा अहिलेति ताम् ॥३३६॥ तज्ञाश्च मन्त्रतन्त्रादिविधिभिः सुप्रयोजितैः । परीक्ष्येयं न भूतोपसृष्टेति व्यक्तमब्रवन् ॥ ३३७ ॥ कुमारोऽपि तदाकर्ण्य न बिभेतु कुमारिका । राजाभ्याशं समभ्येतु तत्राहं चास्म्युपस्थितः ॥ ३३ ॥ इत्यस्याः प्राहिणोत्पत्रं गुढं तद्वीक्ष्य तथा । श्रद्धायाह्वायिता राज्ञः समीपमगमन्मुदा ॥ ३३९ ॥ तदाभरणवृत्तान्तपरिच्छेदाय भूपतिः। धर्माध्यक्षान्समाहृय विचाराय न्ययोजयत् ॥ ३४० ॥ वसुन्धराश्च तत्रैव 'कृत्वा समिहितां तदा । राजा कुमारमप्राक्षीद्वैतीदं किं भवानिति ॥ ३४१॥ अभिधाय स्वविज्ञातं शेषं वेत्तीयमेव तत् । देवता नाहमित्येवं सोऽपि भूपमबोधयत् ॥३४२॥
तदनन्तर दोनोंने पूछा कि हमारे लिए क्या आज्ञा है ? इसके उत्तरमें मुनिराजने कहा था कि कुछ दिनोंके बाद मेरा कार्य होगा और आप दोनों उसे अच्छी तरह जानकर आदरसे करना । सो मुनिराज का वह संदेश यही है यह कहकर वह पत्र खोलकर दिखाया ॥ ३२६-३२८ ।। इसके पश्चात् उन देवोंने बहुतसे धनके साथ उस प्रीतिङ्करको विमानमें बैठाया और सुप्रतिष्ठित नगरके समीपवर्ती धरणिभूषण नामके पर्वतपर उसे शीघ्र ही पहुँचा दिया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यका उदय क्या नहीं करता है ? प्रीतिङ्करका आना सुनकर राजा, उसके भाई-बन्धु और नगरके लोग बड़े हर्षसे अपनी-अपनी विभूतिके साथ उसके समीप आये। उन देवोंने वह प्रीतिङ्कर कुमार उन सबके लिए सौंपा और उसके बाद वे अपने निवास स्थानपर चले गये ।।३२४-३३१ ।। प्रीतिङ्करने नगरमें प्रवेश कर समीचीन रत्नोंकी भेंट देकर राजाकी पूजा की और राजाने भी योग्य स्थान तथा मान आदि देकर उसे संतुष्ट किया ।। ३३२॥
अथानन्तर किसी दसरे दिन प्रीतिकर कमारकी बडी माँ प्रियमित्रा अपने पत्रके विवाहोत्सवमें अपनी पुत्रवधूको अलंकृत करनेके लिए रत्नमय आभूषणोंका समूह लेकर तथा 'रथपर सवार होकर सबको दिखलानेके लिए जा रही थी। उसे देखनेके लिए वह गूंगी कन्या स्वयं मार्गमें आई और अपने आभूषणोंका समूह देखकर उसने अँगुलीके इशारेसे सबको बतला दिया कि यह आभूषणोंका समूह मेरा है। तदनन्तर वह कन्या रथमें बैठी हुई प्रियमित्राको रोककर खड़ी हो गई। इसके उत्तरमें रथपर बैठी हुई प्रियमित्राने सबको समझा दिया कि यह कन्या पगली है ॥ ३३३-३३६ ॥ तब मन्त्र-तन्त्रादिके जाननेवाले लोगोंने विधिपूर्वक मन्त्र-तन्त्रादिका प्रयोग किया और परीक्षा कर स्पष्ट बतला दिया कि न यह पागल है और न इसे भूत लगा है ।। ३३७॥ यह सुनकर प्रीतिकर कुमारने उस कन्याके पास गुप्त रूपसे इस बाशयका एक पत्र भेजा कि हे कुमारि ! तू बिलकुल भय मत कर, राजाके पास प्रा. मैं भी वहाँ उपस्थित रहूंगा। पत्र देखकर तथा विश्वास कर वह कन्या बड़े हर्षसे राजाके समीप गई । राजाने भी उसके आभूषणोंका वृत्तान्त जाननेके लिए धर्माधिकारियोंको बुलाकर नियुक्त किया ॥ ३३८-३४०।। राजाने वसुन्धरा कन्याको समीप ही बाड़में बिठलाकर कुमार प्रौतिङ्करसे पूछा कि क्या आप इसका कुछ हाल जानते हैं ? ।। ३४१ ।। इसके उत्तरमें कुमारने अपना जाना हुअा हाल कह दिया और फिर राजासे समझाकर कह दिया कि बाकीका हाल में नहीं जानत
१ शात्वा सनिहितों तदा ल।
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