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महापुराणे उत्तरपुराणम्
वस्तुबोधे विनेयस्य जिनेन्द्र भवदागमः । निर्मलः शर्मंदो हेतुरालोको वा सचक्षुषः ॥ ३१३ ॥ इत्थं स्वकृतसंस्तोत्रः शुद्धश्रद्धावबोधनः । सम्यक्संसारसद्भावं भावयन्कर्मनिर्मितम् ॥ ३१४ ॥ * अभिषेचनशालायां सुप्तवान्किञ्चिदाकुलः । तदा नन्दमहानन्दावागतौ गुह्यकामरौ ॥ २१५ ॥ वन्दितुं मन्दिर जैनं वीक्ष्य तं कर्णपत्रकम् । तौ तदीयं समादाय सधर्मा 3 वां कुमारकः ॥ ३१६ ॥ इति प्रापयतं देवौ द्रव्येण महता सह । सुप्रतिष्ठं पुरं प्रीतिङ्करमेनं प्रमोदिनम् ॥ ३१७॥ प्रेषणं युवयोरेतदस्माकमिति तद्गतम् । गुरोः सन्देशमालोक्य स्मृत्वा प्राग्भववृत्तकम् ॥ ३१८ ॥ वाराणस्यां पुरे पूर्वं धनदेववणिक्पतेः । भूत्वावां जिनदत्तायां शान्तवो रमणः सुतौ ॥ ३१९ ॥ तत्र शास्त्राणि सर्वाणि विदित्वा ग्रन्थतोऽर्थतः । चोरशास्त्र बलात्पापौ परार्थहरणे रतौ ॥ ३२० ॥ भभूवास्मद्गुरुस्तस्मान्निवारयितुमक्षमः । सर्वसङ्गपरित्यागमकरोदतिदुस्तरम् ॥ ३२१ ॥ इतो धान्यपुराभ्यर्णशिखिभूधरनामनि । भूधरे मुनिमाहात्म्याद् दुष्टाः शार्दूलकादयः ॥ ३२२ ॥ मृगाः कांश्चिन्न बाधन्त इति श्रुत्वा जनोदितम् " । कृततद्भूधरावासी तत्र भूरितपोधनम् ॥ ३२३ ॥ दृष्ट्वा सागरसेनाख्यं तत्समीपे जिनोदितम् । श्रुत्वा धर्मं परित्यज्य मधुमांसादिभक्षणम् ॥ ३२४ ॥ तस्मिन्गुरौ ततः सुप्रतिष्ठाख्यनगरं गते । शार्दूलोपद्रवान्मृत्वा देवभूयं गताविदम् ॥ ३२५ ॥ सर्वमेतद्गुरोरारावतादित्यभिमत्य तम् । गत्वा सम्प्राप्य सम्पूज्य किमावाभ्यां निवेशनम् ॥ ३२६ ॥ कर्तव्यमिति सम्पृष्टो मुनिनाथोऽब्रवीदसौ । अतः परं दिनैः कैश्चित्कर्तव्यं यद्भविष्यति ॥ ३२७ ॥
है उसमें केवल आप ही जग रहे हैं और समस्त संसारको देख रहे हैं ।। ३१२ ।। हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार चतुसहित मनुष्यको पदार्थका ज्ञान होनेमें प्रकाश कारण है उसी प्रकार शिष्यजनोंको वस्तुतत्वका ज्ञान होनेमें आपका निर्मल तथा सुखदायी आगम ही कारण है ।। ३१३ ।। इस प्रकार शुद्ध ज्ञानको धारण करनेवाले प्रीतिङ्कर कुमारने अपने द्वारा बनाया हुआ स्तोत्र पढ़ा तथा कर्मके द्वारा निर्मित संसारकी दशाका अच्छी तरह विचार किया || ३१४ ।। तदनन्तर कुछ व्याकुल होता हुआ वह अभिषेकशाला (स्नानगृह ) में सो गया । उसी समय नन्द और महानन्द नामके दो यक्ष देव, जिन-मन्दिरकी वन्दना करने के लिए आये ।। ३१५ ।। उन्होंने जिन मन्दिर के दर्शनकर प्रीतिङ्करके कानमें बँधा हुआ पत्र देखा और देखते ही उसे ले लिया । पत्र में लिखा था कि 'यह प्रीतिङ्करकुमार तुम्हारा सधर्मा भाई है, इसलिए सदा प्रसन्न रहनेवाले इस कुमारको तुम बहुत भारी द्रव्यके साथ सुप्रतिष्ठ नगर में पहुँचा दो । तुम दोनोंके लिए मेरा यही कार्य है' इस प्रकार उन दोनों देवोंने उस पत्र से अपने गुरुका संदेश तथा अपने पूर्वभवका सब समाचार जान लिया ।। ३१६-३१८ ॥ पहले बनारस नगर में धनदेव नामका एक वैश्य रहता था हम दोनों उसकी जिनदत्ता नामकी बीसे शान्तव और रमण नामके दो पुत्र हुए थे ।। ३१६ ॥ वहाँ हमने ग्रन्थ और अर्थसे सब शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया परन्तु चोर शास्त्रका अधिक अभ्यास होनेसे हम दोनों दूसरेका धन-हरण करने में तत्पर हो गये || ३२० ॥ हमारे पिता भी हम लोगोंको इस चोरीके कार्यसे रोकने में समर्थ नहीं हो सके इसलिए उन्होंने अत्यन्त कठिन समस्त परिग्रहका त्याग कर दिया अर्थात् मुनिदीक्षा धारण कर ली ।। ३२१ ।। इधर धान्यपुर नगर के समीप शिखिभूधर नामक पर्वत पर मुनिराज के माहात्म्यसे वहाँपर रहनेवाले सिंह, व्याघ्र आदि दुष्ट जीव भी किसीको बाधा नहीं पहुँचाते हैं इस प्रकार लोगों का कहना सुनकर हम दोनोंने उस पर्वतको सागरसेन नामके अतिशय तपस्वी मुनिराज रहते थे हम लोगोंने भी जाकर उनके दर्शन किये, उनके समीप जैनधर्मका उपदेश सुना और मधु, मांस आदिका त्याग कर दिया ।। ३२२- ३२४ ।। तदनन्तर वे मुनिराज सुप्रतिष्ठ नगर में चले जानेपर सिंहके उपद्रवसे मरकर हम दोनों इस देव पर्यायको प्राप्त हुए हैं ।। ३२५ ।। 'यह सब गुरु महाराजसे लिये हुए व्रत के प्रभाव से ही हुआ है' ऐसा जानकर हम दोनों उनके समीप गये, उनकी पूजा की और
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१-रालोकाचासचक्षुषः ल० । १ अभिसिञ्चन-ल० । ३ युवयोः । ४ ज्ञात्वा ल० । ५ जनोदितात् ल० ।
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