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महापुराणे उत्तरपुराणम्
गन्धादिभिः समभ्ययं सां पटान्तरितां नृपः । देव ते ब्रूहि यद्द्दष्टं तराथेत्यमुयुक्तवान् ॥ ३४३ ॥ सा नागदचदुश्चेष्टां महीनाथमबू बुधत् । श्रुत्वा तत्सुविचार्यास्मै कुपित्यानेन पापिना ॥ ३४४ ॥ कृतः पुत्रवधः स्वामिवधश्चेति महीपतिः । सर्वस्वहरणं कृत्वा निगृहीतुं तमुद्यतः ॥ ३४५ ॥ प्रतिषिद्धः कुमारेण नैतद्युक्तं तवेति सः । सौजन्यतस्तदा तुष्ट्वा कुमाराय निजात्मजाम् ॥ ३४६ ॥ पृथिवीसुन्दरीं नाम्ना कन्यकाञ्च वसुन्धराम् । द्वात्रिंशद्वैश्यपुत्रीश्च कल्याणविधिना ददौ ॥ ३४७ ॥ सह पूर्वधनस्थानमर्ध राज्यञ्च मावते । पुरा विहितपुण्यानां स्वयमायान्ति सम्पदः ॥ ३४८ ॥ प्रीतः प्रीतिकरस्तत्र काम भोगान्समीप्सितान् । स्वेच्छया वर्धमानेच्छश्विरायानुबभूव सः ॥ ३४९ ॥ मुनौ सागरसेनाख्ये सन्न्यस्यान्येचरीयुषि । लोकान्तरं तदागत्य चारणौ समुपस्थितौ ॥ ३५० ॥ ऋजुश्च विपुलाख्यश्च मत्यन्तौ मतिभूषणौ । रम्ये मनोहरोद्याने गत्वा स्तुत्वा वणिग्वरः ॥ ३५१ ॥ धर्म समन्वयुक्तैतावित्याहर्जुमतिस्तयोः ' । धर्मोऽपि द्विविधो ज्ञेयः स गृहागृहभेदतः ॥ ३५२ ॥ एकादशविधस्तत्र धर्मो गृहनिवासिनाम् । श्रद्धा न व्रतभेदादिः शेषो दशविधः स्मृतः ॥ ३५३ ॥ क्षान्त्यादिः कर्मविध्वंसी तच्छ्रुत्वा तदनन्तरम् । स्वपूर्वभवसम्बन्धं पप्रच्छेवञ्च सोऽब्रवीत् ॥ ३५४ ॥ शृणु सागरसेनाख्यमुनिमाऩपयोगिनम् । पुरेऽस्मिन्नेव भूपालप्रमुखा वन्दितुं गताः ॥ ३५५ ॥ नानाविधानाद्रव्यैः सम्पूज्य पुरमागताः । शङ्खतूर्यादिनिर्घातं श्रुत्वैकमिह जम्बुकम् ॥ ३५६ ॥ कश्चिल्लोकान्तरं यातः पुरेऽधैतं जनो बहिः । क्षिप्त्वा यातु ततो भक्षयिष्यामीत्यागतं मुनिः ॥ ३५७ ॥ यह देवी ही जानती है ।। ३४२ ॥ राजाने कपड़े की आड़ में बैठी हुई उस देवीकी गन्ध आदिसे पूजा कर पूछा कि हे देवि! तूने जो देखा हो वह ज्योंका त्यों कह || ३४३ ।। इसके उत्तरमें उस देवीने राजाको नागदत्तकी सब दुष्ट चेष्टाएँ बतला दीं। उन्हें सुनकर तथा उनपर अच्छी तरह विचार कर राजा नागदत्त से बहुत ही कुपित हुआ । उसने कहा कि इस पापीने पुत्रवध किया है और स्वामिद्रोह भी किया है । यह कहकर उसने उसका सब धन लुटवा लिया और उसका निग्रह करनेका भी उद्यम किया परन्तु कुमार प्रीतिङ्करने यह कहकर मना कर दिया कि आपके लिए यह कार्य करना योग्य नहीं है । उस समय कुमारकी सुजनतासे राजा बहुत ही संतुष्ट हुआ और उसने अपनी पृथिवीसुन्दरी नामकी कन्या, वह वसुन्धरा नामकी कन्या तथा वैश्योंकी अन्य बत्तीस कन्याएँ विधिपूर्वक उसके लिए व्याह दीं ।। ३४४-३४७ ।। इसके सिवाय पहलेका धन, स्थान तथा अपना आधा राज्य भी दे दिया सो ठीक ही है क्योंकि जिन्होंने पूर्वभव में पुण्य किया है ऐसे मनुष्योंको सम्पदाएँ स्वयं प्राप्त हो जाती हैं ॥ ३४८ ॥ इस प्रकार जो अतिशय प्रसन्न है तथा जिसकी इच्छाएँ निरन्तर बढ़ रही हैं ऐसे प्रीतिङ्कर कुमारने वहाँ अपनी इच्छानुसार चिरकाल तक मनचाहे कामभोगोंका उपभोग किया ।। ३४६ ॥
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तदनन्तर किसी एक दिन मुनिराज सागरसेन, आयुके अन्तमें संन्यास धारण कर स्वर्ग चले गये । उसी समय वहाँ बुद्धि-रूपी आभूषणोंसे सहित ऋजुमति और विपुलमति नामके दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज मनोहर नामक उद्यानमें आये । प्रीतिङ्कर सेठने जाकर उनकी स्तुति की और धर्मका स्वरूप पूछा । उन दोनों मुनियोंमें जो ऋजुमति नामके मुनिराज थे वे कहने लगे कि गृहस्थ और मुनिके भेद से धर्म दो प्रकारका जानना चाहिए। गृहस्थोंका धर्म दर्शन-प्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदिके भेदसे ग्यारह प्रकारका है और कर्मोंका क्षय करनेवाला मुनियोंका धर्म क्षमा आदिके भेदसे दश प्रकारका है । धर्मका स्वरूप सुननेके बाद प्रीतिकरने मुनिराज से अपने पूर्वभवों का सम्बन्ध पूछा। इसके उत्तर में मुनिराज इस प्रकार कहने लगे कि सुनो, मैं कहता हूं - किसी समय इस नगर के बाहर सागरसेन मुनिराजने आतापन योग धारण किया था इसलिए उनकी वन्दनाके लिए राजा आदि बहुत से लोग गये थे, वे नाना प्रकारकी पूजा की सामग्रीसे उनकी पूजा कर शङ्ख तुरही आदि बाजों के साथ नगरमें आये थे । उन बाजका शब्द सुनकर एक शृगालने विचार किया
१ - स्वया ० ( १ ) । २ निर्ध्वानं ख० । ३ मूर्ध्नि ख० ।
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