________________
षट्सप्ततितम पर्व
५५३
भव्योऽयं ब्रतमादाय मुक्तिमाशु गमिष्यति । इति मत्वा तमासनमसावेवमभाषत ॥ १५ ॥ प्राग्जन्मकृतपापस्य फलेनाभूः गालकः । इदानी कुधीः साधुसमायोगेऽपि मन्यसे ॥३५९॥ दुष्कर्म विरमैतस्माद्दुरन्तदुरितावहात् । गृहाण व्रतमभ्येहि परिणामशुभावहम् ॥ १०॥ इति तद्वचनादेष मुनिर्मन्मनसि स्थितम् । ज्ञातवानिति सनातसम्मद स गालकम् ॥१७॥ मुनिम्तदिङ्गिताभिज्ञः पुनरेवं समब्रवीत् । स्वमन्यस्य न शक्नोषि व्रतस्यामिषलालसः ॥ ११९ ॥ गृहाणेदं प्रतं श्रेष्ठं रात्रिभोजनवर्जनम् । परलोकस्य पाथेयमिति धयं मुनेवचः ॥ ११॥ श्रुत्वा भक्त्या परीत्यैनं प्रणम्य कृतसम्मदः। गृहीत्वा तद्धत मद्यमांसादीनि च सोऽस्यजत् ॥ ६॥ तदा प्रभृति शाल्यादि विशुद्धाशनमाहरन् । अतिकृच्छू तपः कुर्वन् कश्चित्कालमजीगमत् ॥ १५॥ शुष्काहारमथान्येद्य क्वा तृष्णातिबाधितः । अकास्तमयवेलायर्या पयःपानाभिलाषया ॥ ३६६॥ कूप सोपानमार्गेण प्रविश्यान्तः किमप्यसौ । तत्रालोकमनालोक्य दिनेशोऽस्तमुपागतः ॥ ३६७ ॥ इति निर्गस्य दृष्ट्वामां पुनः पातुं प्रविष्टवान् । गोमायुरेवं द्विषिर्वा कुर्वस्तत्र गमागमौ ॥ ३६८ ॥ दिनेशमस्तमानीय सोढतृष्णापरीषहः । विशुद्धपरिणामेन मृतिमिस्वा हवः ॥ १९॥ एवं कुबेरदरास्य भूस्वा प्रीतिकरः सुतः । व्रतेन धनमित्रायामीरगैश्वर्यमाप्तवान् ॥ ३७०॥ इति तद्वचनाज्जातसंवेगस्तं यतीश्वरम् । शंसन् प्रतस्य माहात्म्यमभिवन्ध ययौ गृहम् ॥ ३७॥ निर्धतः संसृतौ दीर्घमश्नन् दुःखान्यनारतम् । अपारं खेदमायाति दुर्भिक्षे दुविंधो यथा ॥३२॥
कि 'आज कोई नगरमें मर गया है इसलिए लोग उसे बाहर छोड़कर आये हैं, मैं जाकर उसे खाऊँगा' ऐसा विचार कर वह शृगाल मुनिराजके समीप पाया। उसे देखकर मुनिराज समझ गये कि यह भव्य है और व्रत लेकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेगा। ऐसा विचार कर मुनिराज उस निकटभव्यसे इस प्रकार कहने लगे कि पूर्व जन्ममें जो तूने पाप किये थे उनके फलसे अब शृगाल हुआ है और अब फिर दुर्बुद्धि होकर मुनियोंका समागम मिलने पर भी उसी दुष्कर्मका विचार कर रहा है। हे भव्य ! तू दुःखदायी पापको देनेवाले इस कुकर्म से विरत होव्रत ग्रहण कर और शुभ परिणाम धारण कर ॥ ३५०-३६० ॥ मुनिराजके यह वचन सुनकर शृगालको इस बातका बहुत हर्ष हुआ कि यह मुनिराज मेरे मनमें स्थित बातको जानते हैं । शृगालकी चेष्टाको जाननेवाले मुनिराजने उस शृगालसे फिर कहा कि तू मांसका लोभी होनेसे अन्य व्रत ग्रहण करनेमें समर्थ नहीं है अतः रात्रिभोजन त्याग नामका श्रेष्ठ व्रत धारण कर ले। मुनिराजके वचन क्या थे मानो परलोकके लिए सम्बल (पाथेय) ही थे। मुनिराजके धर्मपूर्ण वचन सुनकर वह शृगाल बहुत ही प्रसन्न हुआ उसने भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा दी, उन्हें नमस्कार किया और रात्रिभोजन त्यागका व्रत लेकर मद्य-मांस आदिका भी त्याग कर दिया ।। ३६१-३६४।। उस समयसे वह शृगाल चावल आदिका विशुद्ध आहार लेने लगा। इस तरह कठिन तपश्चरण करते हुए उसने कितना ही काल व्यतीत किया ॥३६५ ॥ किसी एक दिन उस शृगालने सूखा आहार किया जिससे प्याससे पीड़ित होकर वह सूर्यास्तके समय पानी पीनेकी
ग्लासे सीढ़ियोंके मार्ग-द्वारा किसी कुएँ के भीतर गया। कुएँके भीतर प्रकाश न देखकर उसने समझा कि सूर्य अस्त हो गया है इसलिए पानी बिना पिये ही बाहर निकल आया। बाहर आनेपर प्रकाश दिखा इसलिए पानी पीनेके लिए फिरसे कुएँके भीतर गया। इस तरह यह शृगाल दो तीन बार कुएँके भीतर गया और बाहर आया। इतनेमें सचमुच ही सूर्य अस्त हो गया। निदान, उस शृगालने अपने व्रतमें दृढ़ रहकर तृषा-परिषह सहन किया और विशुद्ध परिणामोंसे मरकर कुवरदत्त सेठकी धनमित्रा स्त्रीसे प्रीतिंकर नामका पुत्र हुआ। व्रतके प्रभावसे ही उसने ऐसा ऐश्वर्य प्राप्त किया है। इस प्रकार मुनिराज पचन सुनकर प्रीतिकर संसारले भयभीत हो उठा, उसने व्रतके माहात्म्यकी बहुत भारी प्रशंसा की तथा मुनिराजको नमस्कार कर वह अपने घर लौट आया ॥ ३६६-३७१ ॥ प्राचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार दुाभक्ष पड़ने पर दरिद्र मनुष्य बहुत ही दुखी होता है उसी प्रकार इस संसारमें व्रतरहित मनुष्य दीर्घकाल तक दुःख भोगता हुभा निरन्तर अपार खेदको प्राप्त होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org