________________
महापुराणे उत्तरपुराणम् मतारप्रत्ययमायाति मितः शकयते जनः । प्रती सफलवृक्षो वा निर्धतो बन्ध्यवृक्षवत् ॥ १७॥ अभीष्टफलमाप्नोति व्रतवान्परजन्मनि । न व्रतादपरो बन्धु बतादपरो रिपुः ॥ ३४॥ सर्वेषागमसिनो प्राया निर्धसस्य न केनचित् । उग्रामिर्देवताभिश्च प्रतवाचाभिभूयते ॥ १०५॥ जरम्तोऽपि ममन्येव व्रतवन्त 'वयोनवम् । वयोवृद्धो प्रताद्धीनस्तृणवद्गण्यते जनैः ॥ ३७५ ॥ प्रवृत्यादीयते पापं निवृत्या तस्य सडझयः । ब्रत निवृतिमेवाहुस्तद्गृहास्युरामो ब्रतम् ॥ १७ ॥ प्रतेम जायते सम्पमाप्रत सम्पदे भवेत् । तस्मात्सम्पदमाकांक्षति:कांक्षः सुव्रतो भवेत् ॥ ३४॥ स्वर्गापवर्गयोबोंज जन्तोः स्वल्पमपितम् । तत्र प्रीतिकरो वाथ्यो व्यक्त इष्टान्तकाक्षिणाम् ॥३.९॥ पूर्वोपासनतस्येष्टं फलमत्रानुभूयते । कचिकदाचिस्किश्चिस्कि जायते कारणाद्विना ॥१८॥ कारगादिच्छता कार्य कार्ययोः सुखदुःखयोः । धर्मपापे विपर्यस्ते तदा वान्यरादीक्ष्यताम् ॥१८॥ धर्मपाप 'विमुच्यान्यद्वितयं कारण वदन् । को विधीयसनी नोचेमिणो नास्तिकोऽथवा ॥१८॥ धीमानुदीक्षते उपश्यन् जन्मनोऽस्य हिताहिते। भाविनस्ते प्रपश्यन्तः स्युनं धीमरामाः कथम् ॥२८॥ इति मरवा जिनप्रोक्तं प्रसमादाय शुधीः । स्वर्गापवर्गसौख्याय यतेताविष्कृतोद्यमः ॥ ३८५ ॥ अथ प्रियकराख्याय साभिषेक स्वसम्पदम् । बसुन्धरातुजे प्रीतिरोऽदरा विरक्तधीः ॥ ३८५॥
एस्य राजगृहं साधं बहुभिर्भूत्यबान्धवैः। भगवत्पार्थमासाच संयम प्राप्तवानयम् ॥ १८६॥ रहता है ।। ३७२ ।। व्रतके कारण इस जीवका सब विश्वास करते हैं और व्रतरहित मनुष्यसे सब लोग सदा शङ्कित रहते हैं। व्रती फलसहित वृक्षके समान हैं और अव्रती फलरहित वन्ध्य वृक्षके समान है ।। ३७३ ।। व्रती मनुष्य पर-जन्ममें इष्ट फलको प्राप्त होता है इसलिए कहना पड़ता है कि इस जीवका व्रतसे बढ़कर कोई भाई नहीं है और अव्रतसे बढ़कर कोई शत्रु नहीं है ।। ३७४ । व्रती मनुष्यके वचन सभी स्वीकृत करते हैं परन्तु व्रतहीन मनुष्यकी बात कोई नहीं मानता। बड़े-बड़े देवता भी व्रती मनुष्यका तिरस्कार नहीं कर पाते है।। ३७५ ।। व्रती मनुष्य अवस्थाका नया हो तो भी वृद्ध जन उसे नमस्कार करते हैं और वृद्धजन व्रतरहित हो तो उसे लोग तृणके समान तुच्छ समझते हैं ।। ३७६ ॥ प्रवृत्तिसे पापका ग्रहण होता है और निवृत्तिले उसका क्षय होता है । यथार्थमें निवृत्तिको ही व्रत कहते हैं इसलिए उत्तम मनुष्य व्रतको अवश्य ही ग्रहण करते
३७७।। व्रतप्त सम्पत्तिकी प्राप्ति होती है और अव्रतसे कभी संपत्ति नहीं मिलती इसलिए सम्पत्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको निष्काम होकर उत्तम व्रती होना चाहिये ॥३७८ ।। इस जीवके लिए छोटा-सा व्रत भी स्वर्ग और मोक्षका कारण होता है इस विषयमें जो दृष्टान्त चाहते हैं उन्हें प्रीतिंकरका दृष्टान्त अच्छी तरह दिया जा सकता है ।। ३७६ ।। जिन्होंने पूर्वभवमें अच्छी तरह
पालन किया है वे इस भवमें इच्छानुसार फल भोगते है सो ठीक ही है क्योंकि बिना कारणके क्या कभी कोई कार्य होता हैं ? ॥ ३८० ॥ जो कारणसे कार्यकी उत्पत्ति मानता है उसे सुख-दुःख रूपी कार्यका कारण धर्म और पाप ही मानना चाहिये अर्थात् धर्म से सुख और पापसे दुःख होता है ऐसा मानना चाहिये । जो इसप्ते विपरीत मानते हैं उन्हें विपरीत फलकी ही प्राप्ति होती देखी जाती है ।। ३८१॥ यदि वह मूर्ख, व्यसनी, निदेय, अथवा नास्तिक नहीं है तो धर्म और पापको छोड़कर सुख और दुःखका कारण कुछ दूसरा ही है ऐसा कौन कहेगा ? ॥ ३८२ ॥ जो केवल इसी जन्मके हित अहितको देखता है वह भी बुद्धिमान् कहलाता है फिर जो आगामी जन्मके भी हितअहितका विचार रखते हैं वे अत्यन्त बुद्धिमान क्यों नहीं कहलावें? अर्थात् अवश्य ही कहलावें॥३८॥ ऐसा मानकर शुद्ध बुद्धिके धारक पुरुषको चाहिये कि वह जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा हुआ व्रत लेकर उद्यम प्रकट करता हुआ स्वर्ग और मोक्षके सुख प्राप्त करनेके लिए प्रयन करे॥३८४॥ तदनन्तरविरक्त बुद्धिको धारण करनेवाले प्रीतिकरने अपनी स्त्री वसुन्धराके पुत्र प्रियङ्करके लिए अभिषेकपूर्वक अपनी सब सम्पदाएँ समर्पित कर दी और अनेक सेवक तथा भाई-बन्धुओंके साथ राजगृह नगरमें भगवान्
१वयसा नवो धयोनवस्तम् नवयौवनसम्पन्नम्। 'सयौवनम' इति स्वचित् , नवयौवनम (१)२ विमुच्यन् ये स०।३ पश्यल०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org