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षट्सप्ततितमं पर्व
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बध्वावतरणायामि रज्ज्व। तेन सह स्वयम् । यियासुरासीद्रज्जुं तां ' प्रमोदात्सोऽप्यचालयत् ॥ २९८ ॥ सथस्तच्चालनं दृष्ट्वा नागदत्तो बहिर्गतः । समाकृष्याग्रहीतञ्च ताञ्च द्रव्यञ्च तुष्टवान् ॥ २९९ ॥ पोतप्रस्थानकालेऽस्याः साराभरणसंहतिम् । विस्मृतां स कुमारस्तामानेतुं गतवान् पुनः ॥ ३००॥ नागदरास्तदा रज्जुमाकृष्य द्रव्यमेतया । सारं सम्प्राप्तमेतन्मे भोक्तुमामरणाद्भवेत् ॥ ३०१ ॥ कृतार्थोऽहं कुमारेण यद्वा तद्वानुभूयताम् । इति प्रास्थित साधं तैर्लब्धरन्ध्रो वणिग्जनैः ॥ ३०२ ॥ नागदरोऽङ्गितं ज्ञात्वा कन्यका मौनमब्रवीत् । प्रीतिङ्कराद्विनात्रान्यैर्न वदाम्यहमित्यसौ ॥ ३०३ ॥ नागदत्तोऽपि कन्यैषा मूकीति प्रतिपादयन् । तां द्रव्यरक्षणेऽयौक्षीत्प्रीत्या स्वाङ्गुलिसम्शया ॥ ३०४ ॥ क्रमात्स्वनगरं प्राप श्रेष्ठी प्रीतिकरस्तदा । गतो भूतिलकं नायात्कुत इत्यवदत्स तम् ॥ ३०५ ॥ नागदत्तमसौ नाहं जानामीत्युतरं ददौ । भूषणानि समादाय समुद्रतटमागतः ॥ ३०६ ॥ नागदर्शन पापेन स कुमारोऽतिसन्धितः । अदृष्ट्वा पोतमुद्विभः पुरं प्रति निवृतवान् ॥ ३०७॥ सचिन्तस्तत्र जैनेन्द्र गेहमेकं विलोक्य सम् । पुष्पादिभिः समभ्यर्च्य विधाय विधिवन्दनाम् ॥ ३०८ ॥ जिन स्वद्द्दष्टमात्रेण मत्पापं काप्यलीयत । निशि दीपेन वा ध्वान्तं समुन्मीलितचक्षुषः ॥ ३०९ ॥ चेतनः कर्मभिर्मस्तः सर्वोऽप्यन्यदचेतनम् । सर्ववित्कर्मनिर्मुको जिन केनोपमीयसे ॥ ३१० ॥ साङ्ख्यादीन् लोकविख्यातान् सर्वथा सावधारणान् । एको भवान् जिनाजैषीचित्रं निरवधारणः ॥ ३११॥ अबोधतमसाक्रान्तमनाद्यन्तं जगत्त्रयम् । सुप्तं त्वमेव जागसिं शश्वद्विश्वं च पश्यसि ॥ ३१२ ॥
कुमारके साथ किनारे पर आ गई । कुमारने भी बड़े हर्षसे वह रस्सी हिलाई । रस्सीका हिलना देखकर नागदत्त बाहर आया और उस कन्याको तथा उसके धनको जहाजमें खींचकर बहुत संतुष्ट हुआ। जब जहाज चलनेका समय आया तब कुमार उस कन्याके भूले हुए सारपूर्ण आभरणों को लाने के लिए फिरसे नगर में गया ।। २६२ - ३०० ।। इधर उसके चले जानेपर नागदत्तने वह रस्सी खींच ली और 'इस कन्याके साथ मुझे बहुत-सा अच्छा धन मिल गया है, वह मेरे मरने तक भोगने काम वेगा, मैं तो कृतार्थ हो चुका, प्रीतिङ्करकुमार जैसा तैसा रहे' ऐसा विचार कर और छिद्र पाकर नागदत्त अन्य वैश्योंके साथ चला गया ।। ३०१-३०२ ।। कन्याने नागदत्तका अभिप्राय जानकर मौन धारण कर लिया और ऐसी प्रतिज्ञा कर ली कि मैं इस जहाजपर प्रीतिङ्करके सिवाय अन्य किसीसे बातचीत नहीं करूँगी ||३०३ || नागदत्तने भी लोगों पर ऐसा प्रकट कर दिया कि यह कन्या गूँगा । है और उसे अपनी अंगुलीके इशारेसे बड़े प्रेमके साथ द्रव्यकी रक्षा करनेमें नियुक्त किया ॥ ३०४ ॥ अनुक्रमसे नागदत्त अपने नगर में पहुँच गया । पहुँचनेपर सेठने उससे पूछा कि उस समय प्रीतिकर भी तो तुम्हारे साथ भूतिलक नगरको गया था वह क्यों नहीं आया ? इसके उत्तरमें नागद ने कहा कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ। आभूषण लेकर प्रीतिकर कुमार समुद्रके तटपर
या परन्तु पापी नागदत्त उसे धोखा देकर पहले ही चला गया था । जहाजको न देखकर वह उद्विग्न होता हुआ नगर की ओर लौट गया ।। ३०५ - ३०७ ।। चिन्तासे भरा प्रीतिङ्कर वहीं एक जिनालय देखकर उसमें चला गया। पुष्पादिकसे उसने वहाँ विधिपूर्वक भगवान्की पूजा-वन्दना की । तदनन्तर निम्न प्रकार स्तुति करने लगा ॥ ३०८ ॥
"हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार रात्रिमें खुले नेत्रवाले मनुष्यका सब अन्धकार दीपकके द्वारा नष्ट हो जाता है उसी प्रकार आपके दर्शन मात्रसे मेरे सब पाप नष्ट हो गये हैं ॥ ३०६ ॥ हे जिनेन्द्र ! आप, शुद्ध जीव, कर्मोंसे प्रसित संसारी जीव और जीवोंसे भिन्न अचेतन द्रव्य, इन सबको जानते हैं तथा कमसे रहित हैं अतः आपकी उपमा किसके साथ दी जा सकती है ? ॥ ३१० ॥ हे भगवन् ! यद्यपि आप इन्द्रिय-ज्ञानसे रहित हैं तो भी इन्द्रिय-ज्ञानसे सहित सांख्य आदि लोक प्रसिद्ध दर्शनकारोंको आपने अकेले ही जीत लिया है यह आश्चर्यकी बात है ।। ३११ ।। हे देव ! आदि और अन्तसे रहित यह तीनों लोक अज्ञान रूपी अन्धकारसे व्याप्त होकर सो रहा
१ प्रमादात् क०, ग०, घ०, म० । २ प्रस्थितः ल० । ३ त्वद्दृष्टिमात्रेण म०, ल० ।
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