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षट्सप्ततितमं पर्व
इह संवासिभिर्भूपैः सेव्यमानः सुखेन सः । कालं गमयति स्मैवं कञ्चित्सञ्चितपुण्यकः ॥ २६८ ॥ इतः कनीयसे विद्यां भीमकायालकश्रियम् । दवा संसारभीरुत्वान्निविंद्य विजितेन्द्रियः ॥ २६९ ॥ कर्मनिर्मूलनं कर्त दीक्षां हरिबलाह्वयः। विद्वान्विपुलमत्याख्यचारणस्याप्यसन्निधौ ॥ २७० ॥ शुक्लध्यानानलालीढदुरिताष्टकदुष्टकः । अष्टमीमगमत्पृथ्वीमिष्टामष्टगुणान्वितः ॥ २७१ ॥ प्रकुर्वन् भीमको राज्य विद्याः'शाव्येन केनचित् । हिरण्यवर्मणो हृत्वा तं च हन्तुं समुद्यतः ॥२२॥ ज्ञात्वा हिरण्यवर्मतत्सम्मेदाद्रिमशिश्रियत् । भीमकस्तं ऋधान्वित्य गिरिं गन्तुमशक्तकः ॥ २७३ ॥ तीर्थेशसन्निधानेन तीर्थत्वादागमरपुरम् । ततो हिरण्यवर्मापि पितृव्यं समुपागतः ॥ २७४ ॥ तच्छ्रुत्वा तं निराकर्तुं पूज्यपादोऽहंतीत्यसौ । महासेनमहाराज' प्राहिणोत्प्रतिपत्रकम् ॥ २७५ ॥ तस्यानिराकृतिं३ तस्माद्ज्ञात्वायातं युयुत्सया । कर एष दुरात्मेति मत्पिता भीमकं रणे ॥ २७६ ॥ निजित्य शृङ्खलाक्रान्तमकरोत्क्रमयोद्वयोः । पुनः क्रमेण शान्तात्मा नैतक्तं ममेति तम् ॥ २७७ ॥ मुक्त्वा विधाय सन्धानं प्रशमय्य हितोक्तिभिः । हिरण्यवर्मणा साधं दत्वा राज्यञ्च पूर्ववत् ॥ २७८ ॥ विससर्ज तथावज्ञा बद्धवैरः स भीमकः । हिरण्यवर्मणि प्रायो विद्यां संसाध्य राक्षसीम् ॥ २७९ ॥ तया हिरण्यवर्माणं पापी मल्पितरं पुरम् । मद्धन्धूनपि विध्वस्य मामुद्दिश्यागमिष्यति ॥ २८० ॥ इति सर्व समाकर्ण्य कुमारो विस्मयं वहन् । शय्यातलस्थमालोक्य खड्गमेष सुलक्षणः ॥ २८१ ॥
साथ सुखसे रहने लगे। यहाँ रहनेवाले राजा लोग उनकी सेवा करते थे। इस प्रकार पुण्यका संचय करते हुए उन्होंने यहाँ कुछ काल व्यतीत किया ।। २६६-२६८ ॥ उधर इन्द्रियोंको जीतनेवाले विद्वान् राजा हरिबलको वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने अपने छोटे पुत्र हिरण्यवर्माके लिए विद्या दी और बड़े पुत्र भीमकको अलकापुरीका राज्य दिया। संसारसे भयभीत होनेके कारण विरक्त होकर उसने समस्त कर्मोंका क्षय करनेके लिए विपुलमति नामक चारण मुनिराजके पास जाकर उसने दीक्षा ले ली और शुक्लध्यान रूपी अग्निके द्वारा आठों दष्ट कर्मोंको जलाकर आठ गुणोंसे सा हो इष्ट आठवीं पृथिवी प्राप्त कर ली (मोक्ष प्राप्त कर लिया)॥२६६-२७१ ॥ इधर भीमक राज्य करने लगा उसने किसी छलसे हिरण्यवर्माकी विद्याएँ हर ली। यही नहीं, वह उसे मारनेके लिए भी तैयार हो गया ॥ २७२॥ हिरण्यवर्मा यह जानकर सम्मेदशिखर पर्वतपर भाग गया। क्रोधवश भीमकने वहाँ भी उसका पीछा किया परन्तु तीर्थंकर भगवान्के सन्निधान और स्वयं तीर्थ होनेके कारण वह वहाँ जा नहीं सका इसलिए नगरमें लौट आया। तदनन्तर हिरण्यवर्मा अपने काका महासेनके पास चला गया ।। २७३-२७४ | जब भीमकने यह समाचार सुना तो उसने महाराज महासेनके लिए इस आशयका एक पत्र भेजा कि आप पूज्यपाद हैं हमारे पूजनीय हैं इसलिए हमारे शत्र हिरण्यवर्माको वहाँ से निकाल दीजिए। महाराज महासेनने भी इसका उत्तर भेज कि मैं उसे नहीं निकाल सकता। यह जानकर भीमक युद्धकी इच्छासे यहाँ आया। यह दुरात्मा बहुत ही कर है' यह समझ कर हमारे पिताने युद्ध में भीमकको जीत लिया तथा उसके दोनों पैर सांकलसे बाँध लिये । तदनन्तर अनुक्रमसे शान्त होनेपर हमारे पिताने विचार किया कि मुझे ऐसा करना उचित नहीं है ऐसा विचार कर उन्होंने उसे छोड़ दिया और हितसे भरे शब्दोंसे उसे शान्त कर हिरण्यवर्माके साथ उसकी सन्धि करा दी तथा पहलेके समान ही राज्य देकर उसे भेज दिया। भीमक उस समय तो चला गया परन्तु इस अपमानके कारण उसने हिरण्यवर्माके साथ वैर नहीं छोड़ा। फलस्वरूप उस पापी भीमकने राक्षसी विद्या सिद्ध कर हिरण्यवर्माको, मेरे पिताको तथा मेरे भाइयोंको मार डाला है, इस नगरको उजाड़ दिया है और अब मुझे लेनके उद्देश्यसे आनेवाला है ।। २७५-२८० ॥ यह सब कथा सुनकर आश्चर्यको धारण करते हुए कुमार प्रीतिङ्करने शय्यातलपर पड़ी हुई एक तलवारको देखकर कहा कि इस तलवारके बहुत ही अच्छे लक्षण हैं। यह तलवार जिसके हाथ में होगी उसे इन्द्र भी जीतनेके लिए समर्थ नहीं हो सकता है। क्या तुम्हारे पिताने इस
१ विद्या शाव्येन म.,ख० । २ महाराजः ख०।३ न्यायकृति ल०।
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