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महापुराणे उत्तरपुराणम्
शङ्खतूर्यादिभिस्तस्मिन् ध्वनद्भिः सम्मुखाञ्जनान् । निर्गच्छतो प्रपश्यद्भिराशङ्कय वणिजां वरैः ॥२५३॥ गत्यैतत्पुरमन्विष्य प्रत्येतुमिह कः सहः । इत्युदीरितमाकर्ण्य प्रीतिकरकुमारकः ॥ २५४ ॥ कर्मणोsस्य समर्थोऽहमिति सङ्गीर्णवांस्तदा । चोचबल्कजनिष्पन्नरज्ज्वा तैरवतारितः ॥ २५५ ॥ विस्मयात्परितः पश्यन्प्रविश्य नगरं पुरा । निरीक्ष्य भवनं जैनं परीत्य विहितस्तुतिः ॥ २५६ ॥ ततो गत्वायुधापातविगतासून्निरूपयन् । समन्तात्कन्यकां काञ्चिच्छन्तीं सरसो 'गृहान् ॥ २५७ ॥ केयमित्यनुयातोऽसौ सालोक्य गृहाङ्गणे । भद्रागतः कुतो चेति पीठमस्मै समर्पयत् ॥ २५८ ॥ सोऽपि तस्योपरि स्थित्वा नगरं केन हेतुना । सञ्जातमीदृशं ब्रूहीत्याह तामथ साब्रवीत् ॥ २५९ ॥ तद्वक्तुं नास्ति कालोsस्माद्भद्र त्वं याहि सत्वरम् । भयं महत्शवेहास्तीत्येतच्छ्रुत्वा स निर्भयः ॥ २६० ॥ यो भयं मम कर्ताऽन स किं बाहुसहस्रकः । इत्याह तद्वयोन्मुक्तवाग्गम्भीरविजृम्भणात् ॥ २६१ ॥ शिथिलीभूतभीः कन्याप्यवोचद्विस्तरेण तत् । एतत्खगाद्रयुदीच्यालकेश्वराः सहजास्त्रयः ॥ २६२॥ ज्यायान्हरिबलस्तस्य महासेनोऽनुजोऽनुजः । तस्य भूतिलकस्तेषु धारिण्यां ज्यायसोऽभवत् ॥ २६३॥ तनूजो भीमकस्तस्मादेव विद्याधरेशिनः । हिरण्यवर्मा श्रीमत्यामजायत सुतोऽपरः ॥ २६४ ॥ महासेनस्य सुन्दर्यामुग्रसेनः सुतोऽजनि । वरसेनश्च तस्यानुजा जाताहं वसुन्धरा ॥ २६५ ॥ कदाचिन्मत्पिता भौमविहारे विपुलं पुरम् । निरीक्ष्येदं चिरं चिराहारीति स्वीचिकीर्षुकः ॥ २६६ ॥ एतन्निवासिनीजित्वा रणे व्यन्तरदेवताः । अत्र भूतिलकाख्येन सोदर्येण समन्वितः ॥ २६७ ॥
आकारवाले पर्वतसे घिरे हुए भूमितिलक नामके नगर में पहुँचा ।। २४६ - २५२ ।। उस समय शङ्ख, तुरही आदि बाजे बजाते हुए लोग सामने ही नगरके बाहर निकल रहे थे उन्हें देखकर श्रेष्ठ वैश्योंने भयभीत हो यह घोषणा की कि नगरमें जाकर तथा इस बातका पता चलाकर वापिस आनेके लिए कौन समर्थ है ? यह घोषणा सुनकर प्रीतिकर कुमार ने कहा कि मैं यह कार्य करनेके लिए समर्थ हूँ । वैश्योंने उसी समय उसे दालचीनीकी छालसे बने हुए रस्सेसे नीचे उतार दिया ।। २५३-२५५ ।। आश्चर्यसे चारों ओर देखते हुए कुमारने नगर में प्रवेश किया तो सबसे पहले उसे जिन-मन्दिर दिखाई दिया । उसने मन्दिरकी प्रदक्षिणा देकर स्तुति की। उसके बाद आगे गया तो क्या देखता है कि जगह-जगह शस्त्रों के आघात से बहुत लोग मरे पड़े हैं । उसी समय उसे सरोवरसे निकलकर घरकी ओर जाती हुई एक कन्या दिखी । यह कौन है ? इस बातका पता चलानेके लिए वह कन्याके पीछे चला गया । घरके आँगन में पहुँचनेपर कन्याने प्रीतिङ्करको देखा तो उसने कहा, हे भद्र ! यहाँ कहाँ से आये हो ? यह कह कर उसके बैठनेके लिए एक आसन दिया ।। २५६-२५८ ।। कुमारने उस आसन पर बैठ कर कन्यासे पूछा कि कहो, यह नगर ऐसा क्यों हो गया है ? इसके उत्तर में कन्याने कहा कि यह कहने के लिए समय नहीं है । हे भद्र ! तुम यहाँ से शीघ्र ही चले जाओ क्योंकि यहाँ तुम्हें बहुत भारी भय उपस्थित है। कन्याकी बात सुनकर निर्भय रहनेवाले कुमारने कहा कि यहाँ जो मेरे लिए भय उत्पन्न करेगा उसके क्या हजार भुजाएँ हैं ? कुमारका ऐसा भयरहित गम्भीर उत्तर सुनकर जिसका भय कुछ दूर हो गया है ऐसी कन्या विस्तारसे उसका कारण कहने लगी । उसने कहा कि इस विजयार्ध पर्वतकी उत्तर दिशामें जो अलका नामकी नगरी है उसके स्वामी तीन भाई थे । हरिबल उनमें बड़ा था, महासेन उससे छोटा था और भूतिलक सबसे छोटा था । हरिबलकी रानी धारिणीसे भीमक नामका पुत्र हुआ था और उसीकी दूसरी रानी श्रीमतीले हिरण्यवर्मा नामका दूसरा पुत्र हुआ था। महासेनकी सुन्दरी नामक स्त्रीसे उग्रसेन और वरसेन नामके दो पुत्र हुए और मैं वसुन्धरा नामकी कन्या हुई || २५६-२६५ ।। किसी एक समय मेरे पिता पृथिवी पर बिहार करनेके लिए निकले थे उस समय इस मनोहरी विशाल नगरको देख कर उनकी इच्छा इसे स्वीकृत करनेकी हुई । पहले यहाँ कुछ व्यन्तर देवता रहते थे, उन्हें युद्ध में जीतकर हमारे पिता यहाँ भूतिलक नामक भाईके
१ पुरतः पुरम् म० । नगरं प्रियः क०, घ०, ग० । पुरा ल० । २ गृहम् म०, ल० । क०, ग०, ६० ।
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३ अतो
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