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पट्सप्ततितम पर्व
५४५ लमेथामिति तद्वाक्यश्रवणासोषिताशयौ । यो पूज्यपादस्य भवतः क्षुल्लकोऽस्वसौ ॥ २३९॥ तस्मिन्नुत्पन्नवस्येव दास्याव इति तौ सुखम् । भुजानौ कतिचिन्मासान्गमयित्वा सुतोत्तमम् ॥२४॥ लब्ध्वा प्रीतिकराह्वानमेतस्याकुरुतां मुदा । करोतु स्वगुणैस्तोष सर्वेषां जगतामिति ॥२४॥ पञ्चसंवत्सरातीतौ तस्मिन्धान्यपुरान्मुनौ । आगते सति गत्वैनमभिवन्ध मुनीन्द्र ते ॥ २४२॥ क्षुल्लकोऽयं गृहाणेति तस्मै दत्तः स्म ते तदा । प्रतिगृह्य गुरुर्धान्यपुरमेव गतः पुनः ॥ २४३ ॥ तत्र तं सर्वशास्त्राणि दशवर्षाण्यशिक्षयत् । सोऽप्यासनविनेयत्वात्संयमग्रहणोत्सुकः ॥ २४४ ॥ 'गुरुभिर्नार्य ते दीक्षाकालोऽयमिति वारितः। तथैवास्विति तान्भक्त्या वन्दित्वा पितरौ प्रति ॥२४५॥ पथि स्वाभ्यस्तशास्त्राणि शिष्टानां समुपादशन् । छात्रवेषधरो गत्वा सर्वबन्धुकदम्बकम् ॥ २४६ ॥ विलोक्यानन्तरं राज्ञा सम्यग्विहितसत्कृतिः । असाधारणमात्मानं मन्यमानः कुलादिभिः ॥ २४७ ॥ धनं बहुतरं सारं यावन्नावर्जयाम्यहम् । तावन्न संग्रहीष्यामि पत्नीमिति विचिन्तयन् ॥ २४८ ॥ अन्येद्य गरैः कैश्चिज्जलयानोन्मुखैः सह । यियासुर्बान्धवान्सर्वानापृच्छयैतत्प्रयोजनम् ॥ २४९ ॥ सम्मतस्तैनमस्कतं गत्वा गुरुमुदाराधीः। पत्रमेकं निजाभिप्रेतार्थाक्षरसमर्थितम् ॥ २५० ॥ गुरुणापितमादाय कर्णे सुस्थाप्य सादरम् । शकुनाद्यनुकूल्येन ससखः पोतसाधनः ॥ २५१ ॥ अवगाह्य पयोराशिं पुरं भूतिलकाह्वयम् । परीतं बलयाकारगिरिणा प्राप पुण्यवान् ॥ २५२ ॥
मुनिराजने कहा कि आप दोनों, महापुण्यशाली तथा चरमशरीरी पुत्र अवश्य ही प्राप्त करेंगे। इस प्रकार मुनिराजके वचन सुनकर उन दोनोंका हृदय आनन्दसे भर गया। वे प्रसन्नचित्त होकर बोले कि यदि ऐसा है तो वह बालक आप पृज्यपादके चरणोंमें क्षुल्लक होवे । उसके उत्पन्न होते ही हम दोनों उसे आपके लिए समर्पित कर देंगे। इस तरह सुखका उपभोग करते हुए उन दोनोंने कुछ मास सुखसे बिताये । कुछ मास बीत जानेपर उन्होंने उत्तम पुत्र प्राप्त किया । 'यह पुत्र अपने गुणोंसे समस्त संसारको सन्तुष्ट करेगा' ऐसा विचार कर उन्होंने उसका बड़े हर्षसे प्रीतिङ्कर नाम रक्खा ।। २३८-२४१ ॥ पुत्र-जन्मके बाद पाँच वर्ष बीत जानेपर उक्त मुनिराज धान्यपुर नगरसे फिर इस नगरमें आये । कुबेरदत्त और धनमित्राने जाकर उनकी वन्दना की तथा कहा कि 'हे मुनिराज ! यह
आपका क्षुल्लक है, इसे ग्रहण कीजिए' इस प्रकार कहकर वह बालक उन्हें सौंप दिया। मुनिराज भी उस बालकको लेकर फिरसे धान्यपुर नगरमें चले गये॥२४२-२४३ ॥ वहाँ उन्होंने उसे लगातार दस वर्ष तक समस्त शास्त्रोंकी शिक्षा दी। वह बालक निकटभव्य था अतः संयम धारण करनेके लिए उत्सुक हो गया परन्तु गुरुओंने उसे यह कह कर रोक दिया कि हे आर्य ! यह तेरा दीक्षा ग्रहण करनेका समय नहीं है । प्रीतिङ्करने भी गुरुओंकी बात स्वीकृत कर ली। तदनन्तर वह भक्ति-पूर्वक उन्हें नमस्कार कर अपने माता-पिताके पास चला गया। वह अपने द्वारा पढ़े हुए शास्त्रोंका मार्गमें शिष्ट पुरुषोंको उपदेश देता जाता था। इस प्रकार वह छात्रका वेष रखकर अपने समस्त बन्धुओंके पास जब राजाको उसके आनेका पता चला तब उसने उसका बहुत सत्कार किया। अपने
आपको कुल आदिके द्वारा असाधारण मानते हुए प्रीतिङ्करने विचार किया कि जब तक मैं बहुत-सा श्रेष्ठ धन नहीं कमा लेता हूँ तब तक मैं पत्नीको ग्रहण नहीं करूँगा ॥२४४-२४८ ॥
किसी दिन कितने ही नगरवासी लोग जलयात्रा-समुद्रयात्रा करनेके लिए तैयार हुए। उनके साथ प्रीतिङ्कर भी जानेके लिए उद्यत हुआ। उसने इस कार्यके लिए अपने सब भाई-बन्धुओंसे पूछा। सम्मति मिल जानेपर उत्कृष्ट बुद्धिका धारक प्रीतिङ्कर नमस्कार करनेके लिए अपने गुरुके पास गया। गुरुने अपने अभिप्रेत अर्थको सूचित करनेवाले अक्षरोंसे परिपूर्ण एक पत्र लिखकर उसे दिर वह पत्र बड़े आदरके साथ लेकर कानमें बाँध लिया तथा शकुन आदिकी अनुकूलता देख मित्रोंके साथ जहाज पर बैठकर समुद्रमें प्रवेश किया। तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद वह पुण्यात्मा वलयके
१-नाद्य ते क०, ५०, ग० । २ प्रत्येत्याभ्यस्त म०, ल.।
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