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षट्सप्ततितम पर्व
५४३ चरसिव निशातासिधारायां सम्प्रवर्तयन् । सन्न्यस्य जीवितप्रान्ते कल्पे ब्रिझेन्द्रनामनि ॥२०८॥ विद्यन्माल्येष देवोऽभूदेहदीपयाप्सदिक्तटः । इत्यथ श्रेणिकप्रश्नादिदं वोवाच गौतमः ॥ २०१॥ विद्यन्मालिन एवामूर्देश्योऽत्रैत्येभ्यपुत्रिकाः । जम्बूनाम्नश्चतस्रोऽपि भार्यास्तेनाप्य संयमम् ॥२१॥ सहान्त्यकल्पे भूत्वेह यास्यन्ति परमं पदम् । गत्वा सागरदत्तारुयो दिवमनस्य निर्वृतिम् ॥ २१ ॥ जम्बूनान्नो गृहत्यागसमये यास्यतीत्यपि । सर्वमेतद्रणाधीशनायकव्याहृतं मुदा ॥ १२॥ निशम्य मगधाधीशो जिनं तं चाम्बवन्दत । मानयन्ति न के सन्तः श्रेयो मार्गोपदेशिनम् ॥ २३ ॥ अथान्येचः पुनः प्राप्य भगवन्तं भवान्तकम्' । प्रपूज्य प्रणतस्तस्मिन् सदस्युदिततेजसम् ॥ २१ ॥ दृष्टा तारागणे तारापति वा प्रीतिकेतनम् । प्रीतिकरं पुरानेन किं कृत्वा रूपमीत्शम् ॥१५॥ सम्प्राप्तमिति सोऽप्राक्षीद्गणभूवमब्रवीत् । एतस्मिन् मगधे देशे सुप्रतिधायं पुरम् ॥ २१६ ॥ उजयसेनो महीपाल: पालकस्तस्य लीलया। तत्र सागरदत्ताख्यः श्रेष्ठी तस्य प्रभाकरी ॥ २१७॥ भार्या तयोरभूनागदत्तो ज्येष्ठः सुतोऽनुजः । कुबेरदत्तो वित्तेशसमस्तद्गृहवासिनः ॥ २१८॥ नागदत्तं विवान्ये सर्वेऽभूवबुपासकाः । रत्नाकरेऽपि सद्रनं नामोत्यकृतपुण्यकः ॥ २१९ ॥ तेषां काले बजत्येवं गिरौ धरणिभूषणे । वने प्रियकरोद्याने कदाचित्समवस्थितम् ॥ २२.॥ मुनि सागरसेनाख्यं जयसेननृपादयः । गत्वा सम्पूज्य वन्दित्वा धर्म साध्वन्वयुनत ॥ २२ ॥ सोऽप्येवमब्रवीत्प्राप्तसम्यग्दर्शनकोचनाः । दानपूजामतोपोषितादिभिः प्रासपुण्यकाः ॥ २२२॥
चित्त कभी विकृत नहीं होता था वह उन्हें तृणके समान तुच्छ मानता था। इस तरह उसने बारह वर्ष तक तीक्ष्ण तलवारकी धारापर चलते हुएके समान कठिन तप धारणकर आयुके अन्त समयमें
यासधारण किया जिसके प्रभावत ब्रह्मस्वगमे यह अपने शरीरकी कान्तिसे दिशाओंको व्याप्त करता हुआ विद्युन्माली देव हुआ है। यह कथा कहनेके बाद राजा श्रेणिकके पूछनेपर गौतम गणधर फिर कहने लगे कि इस विद्यन्माली देवकी जो स्त्रियाँ हैं वे सेठोंकी पुत्रियाँ होकर जम्बूकुमारकी चार स्त्रियाँ होंगी और उसीके साथ संयम धारण कर अन्तिम स्वर्गमें उत्पन्न होंगी तथा वहाँसे आकर मोक्ष प्राप्त करेंगी। सागरदत्तका जीव स्वर्ग जावेगा, फिर वहाँ से आकर जम्बूकुमारकी दीक्षा लेनेके समय मुक्त होगा। इस प्रकार गणधरोंमें प्रधान गौतम स्वामीके द्वारा कही हुई यह सब कथा सुनकर मगधदेशका स्वामी राजा श्रेणिक बहुत ही प्रसन्न हुआ। अन्तमें उसने वर्धमान स्वामी और गौतम गणधर दोनोंको नमस्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे कौन सज्जन हैं जो कि कल्याण मार्गका उपदेश देने वालेको नहीं मानते हों-उसकी विनय नहीं करते हों।।२०७-२१३।।
अथानन्तर-दूसरे दिन राजा श्रेणिक फिर संसारके पारगामी भगवान् महावीर स्वामीके समीप पहुँचा और पूजा तथा प्रणाम कर वहीं बैठ गया। वहाँ उसने ताराओंमें चन्द्रमाके समान प्रकाशमान तेजके धारक, तथा प्रीतिकी पताका-स्वरूप प्रीतिकर मुनिको देखकर गणधर देवसे पूछा कि पूर्व जन्ममें इन्होंने ऐसा कौन-सा कार्य किया था जिससे कि ऐसा रूप प्राप्त किया है ? इसके उत्तरमें गणधर इस प्रकार कहने लगे कि इसी मगध देशमें एक सुप्रतिष्ठ नामका नगर है। राजा
सिन उसका लालापूर्वक पालन करता था। उसी नगरम एक सागरदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी खीका नाम प्रभाकरी था। उन दोनों के दो पुत्र हुए-उनमें नागदत्त बड़ा था और छोटा कुबेरकी समता रखने वाला कुबेरदत्त था। नागदत्तको छोड़कर उसके घरके सब लोग श्रावक हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यहीन मनुष्य समुद्र में भी उत्तम रनको नहीं प्राप्त करता है॥२१४-२१६॥ इस तरह उन सबका समय सुखसे व्यतीत हो रहा था। किसी समय धरणिभूषण नामक पर्वतके प्रियङ्कर नामक उद्यानमें सागरसेन नामक मुनिराज पाकर विराजमान हुए। यह सुन राजा जयसेन आदिने जाकर उनकी पूजा-वन्दना की तथा धर्मका यथार्थ स्वरूप पूछा ।। २२०. २२१॥ उत्तरमें मुनिराज इस प्रकार कहने लगे कि जिन्होंने सम्यग्दर्शन-रूपी नेत्र प्राप्त कर लिये हैं
१त्रमेन्द्र-ख.। २ भवान्तगम् ख.। ३ जयसेनमहीपालः न.४ लोचनः ल.।
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