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षट्सप्ततितम पर्ष
५४१ इदमन्यत्कचित्कनिस्पथिकः सहनान्तरे । सुगन्धिफलपुष्पादिसेवयाऽयन् सुखं ततः ॥ १७ ॥ गत्वा विहाय सन्मार्ग महागहनसकटेष्टा क्षुधितमत्युगं सचमूर जिघांसुकम् ॥१८॥ भीत्वा धावन् तदैकस्मिन् भीमकूपेऽपतद्विधीः । तत्र शीतादिभिः पापादोषत्रितयसम्भवे ॥ १७९॥ वाग्रष्टिश्रतिगल्यादिहीनं सदिबाधितम् । तं तमिर्गमनोपायमजानन्तं यच्छया ॥१८॥ कश्चिनिषग्वरो वीक्ष्य दययार्दीकृताशयः । निर्गमय्य ततः केनाप्युपायेन महादरात् ॥ १८ ॥ मन्त्रीपधिप्रयोगेण कृतपादप्रसारणम् । सूक्ष्मरूपसमालोकनोन्मीलितविलोचनम् ॥ १८२ ॥ स्पष्टाकर्णनविज्ञातस्वशक्तिश्रवर्गद्वयम् । व्यक्तवाक्प्रसरोपेतरसनं च व्यधादनु ॥ १८३ ॥ स सर्वरमणीयाख्यं पुरं तन्मार्गदर्शनात् । प्रास्थापयन कस्योपकुर्वन्ति विशदाशयाः॥१८॥ पुनः स विषमासक्तमतिः पथिकदुर्मतिः । प्रकटीकृतदिग्भेदमोहः प्राक्तनकूपकम् ॥ १५ ॥ सम्प्राप्य पतितस्तस्मिस्तथा कांचन संस्तौ । मिथ्यात्वादिकपञ्चोग्रवाधिर्यादीन्युपागतान् ॥ १८६॥ जन्मकूपे क्षुधादाहाबार्तान संवीक्ष्य सन्मतिः । गुरुवैद्यो दयालुत्वाधर्माख्योपायपण्डितः ॥ १४७ ॥ निर्गमय्य ततो जैनभाषौषधनिषेवणान् । सम्यक्त्वनेत्रमुन्मील्य सम्यग्ज्ञानश्रतिद्वयम् ॥ १८८॥ समघटय्य सदरापादौ कृस्वा प्रसारिती । व्यक्ता दयामयीं जिहां विधाय विधिपूर्वकम् ॥१८९ ॥ पाप्रकारस्वाध्यायवचनान्यभिधाप्य तान् । सुधीरगमयन्मार्ग साधुः स्वर्गापवर्गयोः॥१९॥ निजपापोदयादीर्घसंसारास्तत्र केचन । सुगन्धिबन्धुरोदिनचम्पकाभ्याशवर्तिनः। १९१ ॥
तत्सौरभावबोधावमुक्ताः षट्चरणा यथा । पार्श्वस्थाख्याः सहशानचारित्रोपान्तवर्तनात् ॥ १९२ ॥ सबके पूजनीय होते हैं वही छोड़ी हुई वस्तुकी इच्छाकर फिर अनादरको प्राप्त होने लगते हैं। इस कथाके बाद एक कथा और कहती हूँ
किसी उत्तम वनमें कोई पथिक सुगन्धित फल-पुष्प आदि लानेके लिए सुखसे जा रहा था परन्तु वह अच्छा मार्ग छोड़कर महासंकीर्ण वनमें जा पहुँचा। वहाँ उसने भूखा, अतिशय दुष्ट और मारनेकी इच्छासे सामने आता हुआ एक व्याघ्र देखा। उसके भयंसे वह दुबुद्धि पथिक भ और भागता-भागता एक भयंकर कुएँमें जा पड़ा। वहाँ पाप-कर्मके उदयसे उसे शीत आदिके कारण पात-पित्त-कफ-तीनों दोष उत्पन्न हो गये। बोलना, देखना-सुनना तथा चलने आदिमें बाधा होने लगी। इनके सिवाय उसे सर्प आदिकी भी बाधा थी। वह पथिक उस कुएँ से निकलनेका उपाय भी नहीं जानता था। दैववश कोई एक उत्तम वैद्य वहाँ से आ निकला। उस पथिकको देखकर उसका हृदय दयासे आर्द्र हो गया। उसने बड़े आदरसे किसी उपायके द्वारा उसे कुएँसे बाहर निकलवाया और, मन्त्र तथा औषधिके प्रयोगसे उसे ठीककर दिया। उसके पाँव पसरने लगे, सूक्ष्मसे सूक्ष्म रूप देखनेके योग्य उसके नेत्र खुल गये, उसके दोनों कान सब बातें साफ-साफ सुनने लगे तथा उसकी जिह्वासे भी वचन स्पष्ट निकलने लगे ॥ १७६-१८३ ॥ यह सब कर चुकनेके बाद उत्तम वैद्यने उसे मार्ग दिखाकर सर्वरमणीय नामक नगरकी ओर रवाना कर दिया सो ठीक ही है क्यों कि जिनका अभिप्राय निर्मल है ऐसे पुरुष किसका उपकार नहीं करते ? ॥ १८४॥ इसके बाद वह दुर्बुद्धि पथिक फिरसे विषयोंमें आसक्त हो गया, फिरसे दिशा भ्रान्त हो गया और फिरसे उसी पुराने कुएँके पास जाकर उसमें गिर पड़ा। इसी प्रकार ये जीव भी संसार रूपी कुएँ में पड़कर मिथ्यात्व आदि पाँच कारणोंसे वाधिर्य-बहिरापन आदि रोगोंको प्राप्त हो रहे हैं, तथा क्षुधा, दाह भादिसे पीडित हो रहे हैं। उन्हें देखकर उत्तम ज्ञानके धारक तयाधर्मका व्याख्यान करनेमें निपुण गुरु रूपी वेद्य दयालुताके कारण इन्हें इस संसार-रूपी कुएंसे बाहर निकालते हैं। तदनन्तर औषधिके सेवनसे इनके सम्यग्दर्शन रूपी नेत्र खोलते हैं, सम्यग्ज्ञान रूपी दोनों कान ठीक करते हैं, सम्यक् चारित्ररूपी पैरोंको फैलाते हैं, दयारूपी जिह्वाको विधिपूर्वक प्रकट करते हैं, और पाँच प्रकारके स्वाध्याय रूपी वचन कहलाकर उन्हें स्वर्ग तथा मोक्षके मार्गमें भेजते हैं। वे गुरूरूपी वैद्य अत्यन्त बुद्धिमान और उत्तम प्रकृतिके होते हैं ॥ १८५-१९० ।। उनमेंसे बहुतसे लोग पापकर्मके उदयसे दीर्घसंसारी होते हैं। जिस प्रकार सुगन्धिसे भरे विकसित चम्पाके समीप रहते
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