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षट्सप्ततितमं पर्व
आयुरन्यच विध्वंसि यथायं स्तनयित्रकः । इति संसारनिर्देगयोगभाक्स मजायत ॥ १४६ ॥ स्वपित्रा सममन्येद्यः सम्प्राप्यामृतसागरम् । स्थितं मनोहरोद्याने धर्मतीर्थस्य नायकम् ॥ १४७ ॥ श्रुत्वा धर्म तदभ्यर्णे निर्णीतसकलस्थितिः । संयमं बहुभिः सार्धं कृतबन्धुविसर्जनः ॥ १४८ ॥ प्रतिगृह्य मन:पर्ययादिं प्राप्य द्विसम्पदम् । देशान् विहृत्य सद्धर्मदेशेनेह समागतः ॥ १४९ ॥ इति तच्छ्रवणात्सद्यः प्रतिचेताः स्वयञ्च सः । गत्वा मुनीश्वर स्तुत्वा पीत्वा धर्मामृतं ततः ॥ १५० ॥ भवन्तं भगवन्दृष्ट्वा स्नेहो मे समभून्महान् । हेतुना केन वक्तव्यमित्यपृच्छत्स चाब्रवीत् ॥ १५१ ॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते क्षेत्रे विषये मगधाह्वये । वृद्धग्रामे सुतौ जातौ रेवत्यां नरजन्मनः ॥ १५२ ॥ ज्येष्ठोऽत्र राष्ट्रकूटस्य 3 भगदत्तस्ततः परः । भवदेवस्तयोर्ज्यायान् संयमं प्रत्यपद्यत ॥ १५३ ॥ सुस्थिताख्यगुरुं प्राप्य तेनामा विनयान्वितः । नानादेशान् विहृत्यायात् स्वजन्मग्राममेव सः ॥ ३५४ ॥ तदा तद्बान्धवाः सर्वे समागत्य ससम्मदाः । मुनिं प्रदक्षिणीकृत्य सम्पूज्यानन्तुमुद्यताः ॥ १५५ ॥ ग्रामे दुर्मर्षणो नाम तस्मिन्नेत्र गृहाधिपः । तस्य नागवसुर्भाय नागश्रीरनयोः सुता ॥ १५६ ॥ ताभ्यां सा भवदेवाय प्रादायि विधिपूर्वकम् । अग्रजागमनं श्रुत्वा सद्यः सन्जातसम्मदः ॥ १५७ ॥ भवदेवोsयुपागत्य भगदत्तमुनीश्वरम् । विनयात्मप्रणम्यास्त तत्कृताशासनाद्रितः ॥ १५८ ॥ आख्याय धर्मयाथात्म्यं वैरूप्यमपि संसृतेः । गृहीतपाणिरेकान्ते संयमो गृह्यतां त्वया ॥ १५९ ॥ इत्याह तं मुनिः सोऽपि प्रत्यवादीदिदं वचः । नागश्रीमोक्षणं कृत्वा कर्तास्मि भवतोदितम् ॥ १६० ॥ इति तन्मुनिराकर्ण्य जगादाजनने जनः । भार्यादिपाशसंख्यः करोत्यात्महितं कथम् ॥ १६१ ॥
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यह यौवन, धन-सम्पदा, शरीर, आयु और अन्य सभी कुछ नष्ट हो जानेवाले हैं, ऐसा विचारकर वह संसार से विरक्त हो गया ।। १४०-१४६ || दूसरे दिन ही वह मनोहर नामके उद्यानमें स्थित अमृतसागर नामक तीर्थङ्करके समीप पहुँचा, वहाँ उसने धर्मका स्वरूप सुना । समस्त पदार्थों की स्थितिका निर्णय (केया और भाई-बन्धुओंको विदाकर अनेक लोगों के साथ संयम धारण कर लिया । तदनन्तर मन:पर्यय आदि अनेक ऋद्धियों रूप सम्पदा पाकर धर्मोपदेश देते हुए सब देशों में विहार कर वे ही सागरदत्त मुनिराज यहाँ पधारे हैं ।। १४७ - १४६ ।। इस प्रकार मन्त्री- पुत्रके वचन सुनकर वह राजकुमार - शिवकुमार बहुत ही प्रसन्न हुआ, उसने शीघ्र ही स्वयं मुनिराजके पास जाकर उनकी स्तुति की, धर्मरूपी अमृतका पान किया और तदनन्तर बड़ी विनयसे पूछा कि हे स्वामिन ! आपको देखकर मुझे बड़ा भारी स्नेह उत्पन्न हुआ है इसका क्या कारण है ? आप कहिये । इसके उत्तर में मुनिराज कहने लगे कि - ।। १५०-१५१ ।।
इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी मगधदेशमें एक वृद्ध नामका ग्राम था । उसमें राष्ट्रकूट नामका वैश्य रहता था । उसकी रेवती नामक स्त्रीसे दो पुत्र हुए थे। एक भगदत्त और दूसरा भवदेव । उनमें बड़े पुत्र भगदत्तने सुस्थित नामक मुनिराजके पास जाकर दीक्षा धारण कर ली । तदनन्तर उन्हीं
के साथ बड़ी विनयसे अनेक देशों में विहार कर वह अपनी जन्मभूमिमें आया ।। १५२ - १५४ ।। उस समय उनके सब भाई-बन्धु बड़े हर्षसे उनके पास आये और उन मुनिकी प्रदक्षिणा तथा पूजाकर उन्हें नमस्कार करनेके लिए उद्यत हुए ।। १५५ ॥ उसी नगर में एक दुर्मर्पण नामका गृहस्थ रहता था । उसकी स्त्रीका नाम नागवसु था । उन दोनोंके नागश्री नामकी पुत्री उत्पन्न हुई थी । उन दोनोंने अपनी पुत्री, भगदत्त मुनिराजके छोटे भाई भवदेवके लिए विधिपूर्वक प्रदान की थी। बड़े भाईका आगमन सुनकर भवदेव बहुत ही हर्षित हुआ। वह भी उनके समीप गया और विनयके साथ बार-बार प्रणाम कर वहीं बैठ गया । उस समय मुनिराजके उपदेशसे उसके परिणाम बहुत ही आई हो रहे थे ।। १५६१५८ ॥ धर्मका यथार्थ स्वरूप और संसारकी विरूपता बतलाकर मुनिराज भगदत्तने अपने छोटे भाई भयदेवका हाथ पकड़कर एकान्तमें कहा कि तू संयम ग्रहण कर ले || १५६ ।। इसके उत्तर में भवदेवने कहा कि मैं नागश्रीसे छुट्टी लेकर आपका कहा करूँगा ।। १६० ।। यह सुनकर मुनिराजने कहा कि इस संसार में श्री आदिकी पाशमें फँसा हुआ यह प्राणी आत्माका हित कैसे कर सकता १ श्रम्यैरम्यश्च ल० । २ मितसागमिति क्वचित् । ३-कूटाख्याद् म० ।
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