Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 566
________________ ५३८ महापुराणे उत्तरपुराणम् विहृत्य पुनरागच्छन्सम्भ्रमेण समन्ततः । गन्धपुष्पादिमागल्यद्रव्यसवरिवस्यया ॥ १३२॥ जनानाव्रजतो दृष्टा किमेतदिति विस्मयात् । तनूजं पृच्छति स्मासौ बुद्धिसागरमन्त्रिणः ॥ १६॥ कुमार शृणु वक्ष्यामि मुनीन्द्रः श्रतकेवली। ख्यातः सागरदयाख्यस्तपसा दीप्तसज्ञया ॥ १३॥ असौ मासोपवासान्ते पारणायै प्रविष्टवान् । पुरं सामसमृद्धाख्यः श्रेष्टी तस्मै यथाविधि ॥ १५॥ दत्वा विष्वगनं भक्त्या प्रापदाश्चर्यपञ्चकम् । मुनि मनोहरोद्यानवासिनं तं सकौतुकाः॥१३॥ सम्पूज्य वन्दितं यान्ति पौराः परमभक्तितः । इत्याख्यत्सोऽपि तच्छ्रुत्वा पुनरप्यन्वयुहक सः ॥१३॥ कथं सागरदत्ताख्यां 'विविधर्द्धास्तपः श्रुतीः । प्रापदित्यनवीन्मन्त्रिसुतोऽप्यनु यथाश्रुतम् ॥ १३॥ विषये पुष्कलावस्यां नगरी पुण्डरीकिणी । वज्रदन्तः पतिस्तस्याश्चक्रेणाकान्तभूतलः ॥ १३९॥ देवी यशोधरा तस्य गर्भिणी जातदौहृदा। महाविभूत्या गत्वासौ सीतासागरसङ्गमे ॥१०॥ महाद्वारेण सम्प्राप्य जलधि जलजानना । जलकेलीविधौ पुत्रमलब्धाभ्यर्णनितिम् ॥ १४॥ तस्मात्सागरदचाख्यामस्याकुर्वन्सनाभयः । अथ यौवनसम्प्राप्तौ स कदाचन नाटकम् ॥ १२ ॥ साधं स्वपरिवारेण पश्यन् हय॑तले स्थितः। चेटकेनानुकूलाख्थनामधेयेन भाषितः ॥१३॥ कुमार मन्दराकारस्तिष्ठत्येष पयोधरः । पश्याश्चर्यमिति प्रीत्या प्रोन्मुखो लोचनप्रियम् ॥१५॥ तं निरीक्षितुमैहिष्ट नष्टस्तत्काल एव सः। जलदस्तद्विचिन्त्यैवं यौवन विभवो वपुः ॥१५॥ नाम वनमाला था। उन दोनोंके शिवकुमार नामका पुत्र हुआ था। नवयौवनसे सम्पन्न होनेपर किसी दिन वह अपने साथियोंके साथ क्रीड़ा करनेके लिए वनमें गया था। वहाँ क्रीड़ा कर जब वह वापिस जा रहा था तब उसने सब ओर बड़े संभ्रमके साथ सुगन्धित पुष्प आदि मङ्गलमय पूजाकी सामग्री लेकर आते हए बहुत-से आदमी देखे। उन्हें देखकर उसने बड़े आश्चर्यके साथ बुद्धिसागर नामक मन्त्रीके पुत्रसे पूछा कि 'यह क्या है ? ॥ १३०-१३३ ॥ इसके उत्तरमें मन्त्रीका पुत्र कहने लगा कि 'हे कुमार ! सुनिये, मैं कहता हूँ, दीप्त नामक तपश्चरणसे प्रसिद्ध सागरदत्त नामक एक श्रुतकेवली मुनिराज हैं। उन्होंने एक मासका उपवास किया था, उसके बाद पारणाके लिएआज उन्होंने नगरमें प्रवेश किया था। वहाँ सामसमृद्ध नामक सेठने उन्हें विधिपूर्वक भक्तिसे आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये हैं। वे ही मुनिराज इस समय मनोहर नामक उद्यानमें ठहरे हुए हैं, कौतुकसे भरे हुए नगरवासी लोग बड़ी भक्तिसे उन्हींकी पूजा-वन्दना करनेके लिए जा रहे हैं। इस प्रकार मन्त्रीके पुत्रने कहा। यह सुनकर राजकुमारने फिर पूछा कि इन मुनिराजने सागरदत्त नाम, अनेक ऋद्धियाँ, तपश्चरण और शास्त्रज्ञान किस कारण प्राप्त किया है? इसके उत्तरमें मन्त्री-पुत्रने सुन रक्खा था वैसा कहना शुरू किया। वह कहने लगा कि पुष्कलावती देशमें पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है। उसके स्वामीका नाम वज्रदत्त था। वह वनदन्त चक्रवर्ती था इसलिए उसने चक्ररनसे समस्त पृथिवी अपने आधीन कर ली थी।। १३४-१३६ ।। जब उसकी यशोधरा रानी गर्भिणी हुई तब उसे दोहला उत्पन्न हुआ और उसी दोहलेके अनुसार वह कमलमुखी बड़े वैभवके साथ जहाँ सीतानदी समुद्र में मिलती है उसी महाद्वारसे जलक्रीड़ा करनेके लिए समुद्र में गई। वहीं उसने मोक्ष प्राप्त करनेवाला पुत्र प्राप्त किया। चूंकि उस पुत्रका जन्म सागर-समुद्र में हुआ था इसलिए परिवारके लोगोंने उसका सागरदत्त नाम रख लिया। तदनन्तर यौवन अवस्था प्राप्त होनेपर किसी दिन वह सागरदत्त महलकी छतपर बैठा हुआ अपने परिवारके लोगोंके साथ नाटक देख रहा था, उसी समय अनुकूल नामक एक सेवकने कहा कि हे कुमार! यह आश्चर्य देखो, यह बादल मन्दरगिरिके श्राकारसे कैसा सुन्दर बना हुआ है ? यह सुनकर प्रीतिसे भरा राजकुमार ज्योंही ऊपरकी ओर मुँह कर उस नयनाभिराम दृश्यको देखनेके लिए उद्यत हुअा त्योंही वह बादल नष्ट हो गया। उसे नष्ट हुआ देखकर कुमार विचार करने लगा कि जिस प्रकार यह बादल नष्ट हो गया है उसी प्रकार १ विविधीस्तपः भुती ग० । विविधीश्वरो भुती ख•। विविषीश्च स भुतीः इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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