________________
षट्सप्ततितम पर्व घिमां धनमिहाहत प्रविष्टमिति निन्दनम् । स्वस्य कुर्वन्गताशङ्कः सम्प्राप्यानु तदन्तिकम् ॥ ६ ॥ कन्यकाना कुमारं तं तासां मध्यमधिष्ठितम् । विजम्भमाणसद्बुद्धि पारस्थमिवाण्डजम् ॥१२॥ जाललग्नणपोतं वा भद्रं वा कुअराधिपम् । अपारकर्दमे मन्नं सिंह वा लोहपारे ॥१३॥ निरुद्ध लब्धनिर्वैर्ग प्रत्यासमभवक्षयम् । विद्युचोरः समीक्ष्यैवं वक्तोष्ट्राख्यानकं सुधीः ॥६॥ कुमारः श्रूयतां कश्चिदेकदा स्वेच्छया चरन् । गिरेः क्रमेलकः स्वादु तृणं तुझात्प्रदेशतः ॥६५॥ पतन्मधुरसोन्मिश्रमास्वाच सकृदुस्सुकः । ताहगेवाहरिष्यामीत्येतत्पाताभिवाग्छया ॥६६॥ तृणान्सरोपयोगादिपराङ्मुखतगा स्थितः। मृतस्तथैव त्वं चैतान् भोगान् भोक्तुमुपस्थितान् ॥ ६७ ॥ अनिष्छन् स्वर्गभोगार्थी भर्भावता रहितो धिया। इस्यैकागारिकप्रोक्तं तदाकर्ण्य णिग्वरः॥ १८॥ प्रतिवका स तं चोरं स्पष्टदृष्टान्तपूर्वकम् । नरः कश्चिन्महादाहज्वरेण परिपीडितः ॥ १९॥ नदीसरस्सटाकादिपयः पीत्वा मुहर्महः । तथाप्यगततृष्णः किं तृणाग्रस्थाम्बुबिन्दुना ॥ ७० ॥ नृप्तिं प्राप्नोत्यसौ वार्य जीवो दिव्यसुखं घिरम् । भुक्त्वाऽप्रतृप्तः स्वप्नेऽपि गजकणोस्थिरात्मना ॥१॥ सुखेनासाधुनानेन कर्थ तृप्तिमवाप्नुयात् । इति तद्वाचमाकर्ण्य चोरोऽनुव्याहरिष्यति ॥ २ ॥ बने वनेचरचण्डः कृत्वाधारं महाब्रुमम् । गण्डान्ताकृष्टकोदण्डः काण्डेनाखण्ख्य वारणम् ॥ ३॥ महीरुटकोटरस्थेन सन्दष्टः फणिना स्वयम् । स चाहिच गजचाहो गत्यन्तरमजीगमत् ॥ ७ ॥
अथ सर्वान् मृतान् रटा 'तान्क्रोष्टकोऽतिलुब्धकः । तावदेतानहं नाभि नौद्वियाग्रगम् ॥ ७५॥ वह विचार करने लगा कि देखो यह जम्बूकुमार सब प्रकारकी भोग-सामग्रा रहते हुए भी विरक्त होना चाहते हैं और मैं यहाँ धन चुरानेके लिए प्रविष्ट हा हूँ मुझे धिक्कार हो । इस प्रकार अपनी निन्दा करता हुआ वह विद्युच्चोर निःशङ्क होकर, कन्याओंके बीचमें बैठे हुए जीवन्धर कुमारके समीप पहुँचेगा। उस समय जिसे सद्बुद्धि उत्पन्न हुई है ऐसा जम्बूकुमार, उन कन्याओंके बीचमें बैठा हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो पिंजरेके भीतर बैठा हुआ पक्षी ही हो अथवा जालमें फँसा हुआ हरिणका बच्चा ही हो अथवा बहुत भारी कीचड़में फँसा हुआ उनम जानिवाला गजराज ही हो, अथवा लोहे के पिंजरेमें रुका हुआ सिह ही हो । वह अत्यन्त विरक्त था और उसके संसार भ्रमणका क्षय अत्यन्त निकट था। ऐसे उस जम्बूकुमारको देखकर बुद्धिमान् विद्युच्चोर ऊँटकी कथा कहेगा ।। ५८६४॥ वह कहेगा कि हे कुमार ! सुनिये, किसी समय कोई एक ऊँट स्वेच्छासे मीठे तृण चरता हुआ पहाड़के निकट जा पहुँचा । जहाँ वह चर रहा था वहाँकी घास ऊँचे स्थानसे पड़ते हुए मधुके रससे मिल जानेके कारण मीठी हो रहा थी। उस ऊँटने एक बार वह मीठी घास खाई तो यही संकल्प कर लिया कि मैं ऐसी ही घास खाऊँगा। इस संकल्पसे वह मधुके पड़नेकी इच्छा करने लगा तथा दूसरी घासके उपभोग आदिसे विरक्त होकर वहीं बैठा रहा तदनन्तर भूखसे पीड़ित हो मर गया। इसी प्रकार हे कुमार ! तू भी इन उपस्थित भोगोंकी उपेक्षा कर स्वर्गके भोगोंकी इच्छा करता है सो तू भी उसी ऊँटके समान बुद्धिसे रहित है। इस प्रकार विद्युच्चोरके द्वारा कही हुई ऊँटकी कथा सुनकर वैश्यशिरोमणि जम्यूकुमार एक स्पष्ट दृष्टान्त देता हुआ उस चोरको उत्तर देगा कि एक मनुष्य महादाह करनेवाले ज्वरसे पीड़ित था, उसने नदी, सरोवर तथा ताल आदिका जल बार-बार पिया था तो भी उसकी प्यास शान्त नहीं हुई थी सो क्या तृणके अग्रभाग पर स्थित जलकी बूंदसे उसकी तृप्ति हो जावेगी ? इसी प्रकार इस जीवने चिरकाल तक स्वर्गके सुख भोगे हैं फिर भी यह तृप्त नहीं हुआ सो क्या हाथीके कानके समान चश्चल इस वर्तमान सुखसे यह तृप्त हो जायगा ? इस प्रकार जम्बूकुमारके वचन सुनकर विद्युच्चोर फिर कहेगा ।। ६५७२ ।। कि किसी वनमें एक चण्ड नामका भील रहता था। उसने एक बड़े वृक्षको आधार बनाकर अर्थात् उस पर बैठकर गाल तक धनुष खींचा और एक हाथीको मार गिराया। इतने में ही उस वृक्षकी कोटरसे निकल कर एक साँपने उसे काट खाया। काटते ही उस अज्ञानी भीलने उस साँपको भी मार डाला। इस तरह हाथी और साँप दोनोंको मारकर वह स्वयं मर गया। तदनन्तर उन
१ कोधिकोऽतिलुवकला।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org