________________
५३४
महापुराणे उत्तरपुराणम् खादामीति कृतोद्योगस्तच्छेदमकरोद्विधीः । सपश्चापाग्रनिभिजगलः सोऽपि वृथा मृतः ॥ ७॥ ततोऽतिगृनुता स्याज्येस्यस्योक्किविरती सुधीः । कुमारः स्मृतिमाधाय सूक्तं 'प्रत्यभिधास्यति ॥ ७॥ चतुर्मार्गसमायोगदेशमध्ये महाद्यतिम् । रत्नराशिं समभ्येत्य सुग्रह पथिको विधीः ॥ ७० ॥ तदानादाय केनापि हेतुना गतवान्पुनः । समादित्सुस्तमागत्य किं तद्देश लभेत सः॥ ७९ ॥ तथा दुष्प्रापमालोक्य गुणमाणिक्यसञ्चयम् । अस्वीकुर्वन् कथं पश्चात्प्रामुयाद्ववारिधौ ॥ ८॥ तदुदीरितमेतस्य कृत्वा चित्ते परस्वहृत् । वदिष्यति तदाख्यानमन्यदन्यायसूचनम् ॥ ८॥ भृगालः कश्चिदास्यस्थं मांसपिण्डं विसृष्टवान् । संक्रीडमानमीनादानेच्छुनिपतितोऽम्भसि ॥ ८२॥ तद्वेगवत्प्रवाहेण प्रेर्यमाणोऽगमन्मृतिम् । ततो मीनोऽपि दीर्घायुर्जलमध्ये स्थितः सुखम् ॥ ८३ ॥ एवं शृगालवल्लुब्धो मुग्धोऽन्योऽपि विनश्यति । इति तस्करमुख्योक्तिमाकानाकुलात्मकः ॥ ८॥ प्रत्यासनपिनेयत्वाद्वचः प्रतिभणिष्यति । निद्रालुको वणिकश्चिमिद्रासुखविमोहितः ॥ ८५॥ सुप्तः पराय॑माणिक्यगर्भकक्षपुटे निजे । चोरैरपहृतोऽनेन दुःखेनामृत दुर्मतिः ॥८६॥ विषयाल्पसुखेष्वेवं संसक्तो 'रागचोरकैः । ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नेष्वपहृतेष्वयम् ॥ ८७ ॥ जन्मी नश्यति निर्मूलमित्यतः स गदिष्यति । स्वमातुलानीदुर्वाक्यकोपात्काचिन्मुमुर्घकाम् ॥८॥ वृक्षमूले स्थितां वीक्ष्य सर्वाभरणभूषिताम् । अज्ञातोद्वन्धनोपायामाकुलाकुलचेतसम् ॥ ८९ ॥ सुवर्णदारको नाम पापी मार्दशिकस्तदा । तदाभरणमादित्सुसुंदङ्ग स्वं तरोरधः ॥ १०॥
सबको मरा देखकर एक अत्यन्त लोभी गीदड़ आया। वह सोचने लगा कि मैं पहले इन सबको नहीं खाकर धनुषकी डोरीके दोनों छोड़ पर लगी हुई ताँतको खाता हूँ। ऐसा विचार कर उस मर्वने ताँतको काटा ही था कि उसी समय धनुषके अग्रभागसे उसका गला फट गया और वह व्यर्थ ही मर गया । इसलिए अधिक लोभ करना छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार कहकर जब चोर चुप हो रहेगा तब बुद्धिमान् जम्बूकुमार विचार कर एक उत्तम बात कहेगा ।।७३-७७ ॥ कि कोई मूर्ख पथिक कहीं जा रहा था उसे चौराहे पर महा देदीप्यमान रत्नोंकी राशि मिली, उस समय वह उसे चाहता तो अनायास ही ले सकता था परन्तु किसी कारणवश उसे बना लिये ही चला गया। फिर कुछ समय बाद उसे लेनेकी इच्छा करता हुआ उस चौराहे पर आया सो क्या वह उस रत्नराशिको पा सकेगा ? अर्थात् नहीं पा सकेगा। इसी प्रकार जो मनुष्य संसार रूपी समुद्रमें दुलभ गुण रूपी मणियोंके समूहको पाकर भी उसे स्वीकृत नहीं करता है सो क्या वह उसे पीछे भी कभी पा सकेगा? अर्थात् नहीं पा सकेगा ॥७८-८०॥ जम्बूकुमारके द्वारा कही हुई बातको हृदयमें रखकर विद्यच्चोर अन्यायको सूचित करनेवाली एक दूसरी कथा कहेगा ।। ८१॥ वह कहेगा कि एक शृगाल मुखमें मांसका टुकड़ा दाबकर पानीमें जा रहा था वहाँ क्रीड़ा करती हुई मछलीको पकड़नेकी इच्छासे उसने वह मांसका टुकड़ा छोड़ दिया और पानीम कूद पड़ा। पानीके प्रवाहका वेग अधिक था अतः वह उसीमें बह कर मर गया उसके मरनेके बाद दीर्घायु मछली पानीमें सुखसे रहने लगी। इसी प्रकार जो मूर्ख, शृगालके समान लोभी होता है वह अवश्य ही नष्ट होता है। इस तरह विद्युच्चोर की बात सुनकर निकट भव्य होनेके कारण जिसे कुछ भी आकुलता नहीं हुई है ऐसा जम्बूकुमार कहेगा कि निद्रालु प्रकृतिका एक वश्य नादक सुखस विमोहित होकर सा गया और चोरोंने उसके घरमें घुसकर सब बहुमूल्य रत्न चुरा लिये । इसी दुःखसे वह मर गया। इसी प्रकारायह जीव विषयजन्य थोड़ेसे सुखोंमें आसक्त हो रहा है और राग रूपी चोर इसके ज्ञान-दर्शन तथा चारित्र रूपी रत्न चुरा रहे हैं। इन रत्नोंकी चोरी होने पर यह जीव निर्मूल नष्ट हो जाता है। इसके उत्तरमें वह चोर
के कोई स्त्री सासुके दुवेचन सुनकर क्रोधित हुई और मरनेकी इच्छासे किसी वृक्षके नीचे जा बैठी । वह सब आभूषणोंसे सुशोभित थी परन्तु फाँसी लगाना नहीं जानती थी इसलिए उसका चित्त बड़ा ही व्याकुल हो रहा था । ८२-८६ ॥ उसी समय सुवर्णदारक नामका मृदङ्ग बजानेवाला
१ प्रत्यभ्यधास्यसि (१)न। २ रोग-ल०।३ सुवर्णदारक इति कचित् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org