________________
महापुराणे उत्तरपुराणम
सुता सागरदास्य पद्मावत्यां सुलक्षणा । पद्मश्रीरपरा श्रीर्वा कनकक्षीः शुभेक्षणा ॥ ४५ ॥ सुता कुबेरदशस्य जाता कनकमालया । वीक्ष्या विनयवत्याश्च या वैश्रवणदराजा ॥ ४७ ॥ विनयश्री रैदास्य रूपश्रीश्च धनश्रियः । भभिः सागरदत्तादिपुत्रिकाभिर्यथाविधि ॥ ४८ ॥ सौधागारे निरस्तान्धकारे सम्भणिदीप्तिभिः । विचित्ररत्नसनूर्णरङ्गवल्लीविभूषिते ॥ ४९ ॥ नानासुरभिपुष्पोपहाराज्ये जगतीतले । स्थास्यस्याप्तविवाहोऽयं पाणिग्रहणपूर्वकम् ॥ ५० ॥ सुतो मसाय रागेण प्रेरितो विकृतिं भजन् । स्मितहासकटाक्षेक्षणादिमान्कि भवेन वा ॥ ५१ ॥ इत्यात्मानं तिरोधाय पश्यन्ती स्थास्यति स्त्रिहा । माता तस्य तदैवैकः पापिष्ठः प्रथमांशकः ॥ ५२ ॥ सुरम्यविषये ख्यातपौदनाख्यपुरेशिनः । विद्युद्वाजस्य तुग्विद्युत्प्रभो नाम 'भटाप्रणीः ॥ ५३ ॥ तीक्ष्णो विमलवस्याश्च क्रध्वा केनापि हेतुना । निजाग्रजाय निर्गत्य तस्मात्पञ्चशतैर्भटैः ॥ ५४ ॥ विद्युच्चोरायं कृत्वा स्वस्य प्राप्य पुरीमिमाम् । जानन्नदृश्यदेहत्वकवाटादुद्घाटनादिकम् ॥ ५५ ॥ चोरशास्त्रोपदेशेन तन्त्रमन्त्रविधानतः । अर्हदासगृहाभ्यन्तरस्थं चोरयितुं धनम् ॥ ५६ ॥ प्रविश्य नष्टनिद्वान्तां जिनदासीं विलोक्य सः । निवेद्यात्मानमेवं किं विनिद्रासीति वक्ष्यति ॥ ५७ ॥ सूनुर्ममैक एवायं प्रातरेव तपोवनम् । अहं "गमीति सङ्कल्प्य स्थितस्तेनास्मि शोकिनी ॥ ५८ ॥ श्रीमानसि यदीमं त्वं व्यावयस्वाग्रहासतः । उपायैरथ ते सर्व धनं दास्याम्यभीप्सितम् ॥ ५९ ॥ इति वक्त्री भवेत्सापि सोऽपि सम्प्रतिपद्य तत् । एवं सम्पन्नभोगोऽपि किलैष विरिरंसति ॥ ६० ॥
५३२
फँसाने के लिए सुखदायी बन्धन स्वरूप उसका विवाह करना प्रारम्भ करेंगे सो ठीक ही है क्योंकि भाई-बन्धु लोग कल्याण में विघ्न करते ही हैं ।। ४३-४५ ॥ इसी नगरमें सागरदत्त सेठकी पद्मावती स्त्रीसे उत्पन्न हुई उत्तम लक्षणोंवाली पद्मश्री नामकी कन्या है जोकि दूसरी लक्ष्मी के समान जान पड़ती है। इसी प्रकार कुवेरदत्त सेठकी कनकमाला स्त्रीसे उत्पन्न हुई शुभ नेत्रोंवाली कनकश्री नामकी कन्या है । इसके अतिरिक्त वैश्रवणदत्त सेठकी विनयवती स्त्रीसे उत्पन्न हुई देखनेके योग्य विनयश्री नामकी पुत्री है और इसके सिवाय धनदत्त सेठकी धनश्री स्त्रीसे उत्पन्न हुई रूपश्री नामकी कन्या है | इन चारों पुत्रियोंके साथ उसका विधि पूर्वक विवाह होगा । तदनन्तर पाणिग्रहण पूर्वक जिसका विवाह हुआ है ऐसा जम्बूकुमार, उत्तम मणिमय दीपकोंके द्वारा जिसका अन्धकार नष्ट हो गया है, जो नाना प्रकारके रत्नोंके चूर्णसे निर्मित रङ्गावलीसे सुशोभित है और अनेक प्रकारके सुगन्धित फूलों के उपहारसे सहित है ऐसे महलके भीतर पृथिवी तलपर बैठेगा । 'मेरा यह पुत्र रागसे प्रेरित होकर विकार भावको प्राप्त होता हुआ मन्द मुसकान तथा कटाक्षावलोकन आदिसे युक्त होता है या नहीं" यह देखनेके लिए उसकी माता स्नेह वश अपने आपको छिपाकर वहीं कहीं खड़ी होगी । उसी समय सुरम्य देशके प्रसिद्ध पोदनपुर नगरके स्वामी विद्युद्राजकी रानी विमलमता से उत्पन्न हुआ विद्युत्प्रभ नामका चोर आवेगा । वह विद्युत्प्रभ महापापी तथा नम्बर एकका चोर होगा, शूरवीरोंमें प्रेसर तथा तीक्ष्ण प्रकृतिका होगा । वह किसी कारण वश अपने बड़े भाईसे -कुपित होकर पाँच सौ योद्धाओंके साथ नगरसे निकलेगा और विद्युच्चोर नाम रखकर इस नगरीमें आवेगा। वह चोर शास्त्र के अनुसार तन्त्र-मन्त्र के विधानले अदृश्य होकर किवाड़ खोलना आदि सब कार्योंका जानकार होगा और सेठ अद्दासके घरके भीतर रखे हुए धनको चुरानेके लिए इसीके घर आवेगा । वहाँ जम्बूकुमारकी माताको निद्रारहित देखकर वह अपना परिचय देगा और कहेगा कि तू इतनी रात तक क्यों जाग रही है ? ।। ४६-५७ ।। इसके उत्तर में जिनदासी कहेगी कि 'मेरे यही एक पुत्र है और यह भी संकल्प कर बैठा है कि मैं सबेरे ही दीक्षा लेनेके लिए तपोवनको 'चला जाऊँगा' इसीलिए मुझे शोक हो रहा है। यदि तु बुद्धिमान् है और किन्हीं उपायोंसे इसे इस
महसे छुड़ाता है - इसका दीक्षा लेनेका श्राग्रह दूर करता है तो आज मैं तुझे तेरा मनचाहा सब धन दे दूँगी। जिनदासीकी बात सुनकर विद्युच्चोरने यह कार्य करना स्वीकृत किया । तदनन्तर
१ तदग्रणीः ज० । २ गामीति ग०, घ०, म० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org