________________
महापुराणे उत्तरपुराणम्
अटत्येष व भिक्षायै शास्त्रोक्तं तन्मृषेत्यसौ । वदन्नभिहितोऽन्येन न मृषा शास्त्रभाषितम् ॥ १४ ॥ त्यक्तसाम्राज्य तन्त्रोऽयमृषिः केनापि हेतुना । निर्विण्णस्तनये वाले निधाय व्यापृतिं निजाम् ॥ १५ ॥ एवं तपः करोतीति श्रुत्वा तद्वचनं परः । अवोचत्किमनेनास्य तपसा पापहेतुना ॥ १६ ॥ दुरात्मनः कृपां हित्वा बालं तमसमर्थकम् | लोकसंव्यवहाराज्ञं स्थापयित्वा धरातले ॥ १७ ॥ स्वयं स्वार्थं समुद्दिश्य तपः कर्तुमिहागतः । मन्त्रिप्रभृतिभिः सर्वैः कृत्वा तं शृङ्खलावृतम् ॥ १८ ॥ राज्यं विभज्य तत्स्वैरं पापैस्तदनुभूयते । इति तद्वचनं श्रुत्वा स्नेहमानप्रचोदितः ॥ १९ ॥ अभुञ्जानः पुरादाशु निवृत्यैत्य वनान्तरे । वृक्षमूलं समाश्रित्य बाह्यकारणसन्निधौ ॥ २० ॥ अन्तः क्रोधकपायानुभागोग्रस्पर्धकोदयात् । संक्केशाध्यवसानेन वर्धमानत्रिलेश्यकः ॥ २१ ॥ मन्त्र्यादिप्रतिकूलेषु हिंसाद्यखिलनिग्रहान् । ध्यायन् संरक्षणानन्दरौद्रध्यानं प्रविष्टवान् ॥ २२ ॥ अतः परं मुहूर्तं वेदेवमेव स्थितिं भजेत् । आयुषो नारकस्यापि प्रायोग्योऽयं भविष्यति ॥ २३ ॥ ततस्त्वयाशु सम्बोध्यो ध्यानमेतस्यजाशुभम् । शमय क्रोधदुर्वहिं मोहजाल निराकुरु ॥ २४ ॥ गृहाण संयमं त्यक्तं पुनस्त्वं मुक्तिसाधनम् । दारदारकबन्ध्वादिसम्बन्धनमबन्धुरम् ॥ २५ ॥ संसारवर्धनं साधो जहीहीत्येवमादिभिः । युक्तिमद्भिर्वचोभिः सप्रत्यवस्थानमाप्तवान् ॥ २६॥ शुक्लध्यानाभिनिर्दग्धघातिकर्मघनाटविः । नवकेवललब्धीद्धशुद्धभावो भविष्यति ॥ २७ ॥ इत्यसौ च गणाधीशवचनान्मगधाधिपः । गत्वा तदुक्तमार्गेण सद्यः प्रासादयन्मुनिम् ॥ २८ ॥ सोsपि सम्प्राप्य सामग्रीं कषायक्षयक्षान्तिजाम् । द्वितीयशुक्रुध्यानेन कैवल्यमुदपादयत् ॥ २९ ॥ झूठ मालूम होता है । इसके उत्तर में दूसरे मनुष्यने कहा कि शास्त्रमें जो कहा गया है वह झूठ नहीं है । ये साम्राज्य तन्त्रका त्यागकर ऋषि हो गये हैं। किसी कारणसे विरक्त होकर इन्होंने अपना राज्यका भार बालक -छोटे ही वयको धारण करनेवाले अपने पुत्रके लिए दे दिया है और स्वयं विरक्त होकर इस प्रकार तपश्चरण कर रहे हैं। इसके वचन सुनकर तीसरा मनुष्य बोला कि 'इसका तप पापका कारण है अतः इससे क्या लाभ है ? यह बड़ा दुरात्मा है इसलिए दया छोड़कर लोकव्यवहारसे अनभिज्ञ असमर्थ बालकको राज्यभार सौंपकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिए यहाँ तप करनेके लिए आया है । मन्त्री आदि सब लोगोंने उस बालकको सांकलसे बाँध रक्खा है और राज्यका विभागकर पापी लोग इच्छानुसार स्वयं उसका उपभोग करने लगे हैं। तीसरे मनुष्य के उक्त वचन सुनकर इन मुनिका हृदय स्नेह और मानसे प्रेरित हो उठा जिससे वे भोजन किये विना ही नगर से लौटकर वनके मध्य में वृक्ष के नीचे आ बैठे हैं ।। १२-२० ।। बाह्य कारणोंके मिलनेसे उनके अन्तःकरणमें तीव्र अनुभागवाले क्रोध कषायके स्पर्धकों का उदय हो रहा है । संक्लेशरूप परिणामों से उनके तीन अशुभलेश्याओं की वृद्धि हो रही है । जो मन्त्री आदि प्रतिकूल हो गये हैं उनमें हिंसा आदि सर्व प्रकारके निग्रहोंका चिन्तवन करते हुए वे संरक्षणानन्द नामक रौद्र ध्यानमें प्रविष्ट हो रहे हैं । यदि अब आगे अन्तर्मुहूर्त तक उनकी ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरक आयुका न्ध करनेके योग्य हो जायेंगे ।। २२-२३ ।। इसलिए हे श्रेणिक ! तू शीघ्र ही जाकर उसे समझा दे और कह दे कि हे साधो ! शीघ्र ही यह अशुभ ध्यान छोड़ो, क्रोधरूपी अग्निको शान्त करो, मोहके जालको दूर करो, मोक्षका कारणभूत जो संयम तुमने छोड़ रक्खा है उसे फिरसे ग्रहण करो, यह स्त्री-पुत्र तथा भाई आदिका सम्बन्ध अमनोज्ञ है तथा संसारका बढ़ानेवाला है । इत्यादि युक्ति पूर्ण वचनोंसे तू उनका स्थितीकरण कर । तेरे उपदेशसे वे पुनः स्वरूप में स्थित होकर शुक्ल ध्यानरूपी अभिके द्वारा घातिया कर्मरूपी सघन अवको भस्म कर देंगे और नव केवललब्धियोंसे देदीप्यमान शुद्ध स्वभावके धारक हो जायेंगे ।। २४-२७ ॥ गणधर महाराजके उक्त वचन सुनकर राजा श्रेणिक शीघ्र ही उन मुनिके पास गया और उनके बताये हुए मार्गसे उन्हें प्रसन्न कर आया ।। २८ ।। उक्त मुनिराजने भी कषायके भयसे उत्पन्न होनेवाली शान्तिसे उत्पन्न होनेवाली सामग्री प्राप्तकर द्वितीय शुक्ल भ्यानके द्वारा केवलज्ञान उत्पन्न कर लिया ॥ २६ ॥ १ धराधुरि इति क्वचित् ।
५३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org