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षट्सप्ततितमं पर्व
अथान्येचुर्महावीरः सुरासुरपरिष्कृतः । विहृत्य विविधान् देशान् पुनस्तत्पुरमागतः ॥1॥ गणैर्वादशभिः पूज्यः स्थितः स विपुलाचले । गच्छंस्तं श्रेणिकः स्तोतुं वृक्षमूलशिलातले ॥ २ ॥ मुनि धर्मरुचि नाना निस्तरङ्गमिवोदधिम् । प्रदीपमिव निष्कम्पं साम्बु वाम्भोदमुन्नतम् ॥ ३ ॥ जितेन्द्रियसमाहारं पर्यविहितासनम् । षनिरुनिःश्वासं मनाङ्मीलितलोचनम् ॥ ४ ॥ ध्यायन्तं वीक्ष्य वन्दित्वा साशङ्को विकृताननात् । ततो गत्वा निनं प्राप्य स्तुत्वा मुकुलिताअलिः ॥ ५॥ गौतमञ्च मया दृष्टः कश्चिदेकस्तपोधनः । ध्यायन्साक्षादिव ध्यातिस्तद्रपेण व्यवस्थिता ॥६॥ स को मे कौतुकं तस्मिन् हि नाथेत्यभाषत । अनुयुक्तो गणी तेन प्रोषाच वचसा पतिः ॥ ७ ॥ अस्त्यन्न विषयोऽमाख्यः सङ्गतः सर्ववस्तुभिः । नगरी तत्र चम्पाख्या तत्पतिः श्रेतवाहनः ॥ ८॥ श्रुत्वा धर्म जिनादस्मात्त्रिनिर्वेगाहिताशयः । राज्यभारं समारोप्य सुते विमलवाहने ॥ ९॥ संयम बहुभिः सार्धमत्रैव प्रतिपन्नवान् । चिरं मुनिगणैः साकं विहृत्याखण्डसंयमः ॥१०॥ धर्मेषु रुचिमातन्वन् दशस्वप्यनिश जनैः । प्राप्तधर्मरुचिख्यातिः सख्यं यत्सर्वजन्तुषु ॥७॥ अद्य मासोपवासान्ते भिक्षार्थ प्राविशत्पुरम् । पुरुषाः संहतास्तत्र तत्समीपमितालयः ॥ १२॥ नरलक्षणशास्त्रज्ञस्तेष्वेको वीक्ष्य तं मुनिम् । लक्षणान्यस्य साम्राज्यपदवीप्राप्तिहेतवः ॥ १३ ॥
अथानन्तर-सुर-असुरोंसे घिरे हुए भगवान् महावीर अनेक देशोंमें विहार कर किसी दिन फिर उसी राजगृह नगरमें आ पहुँचे ॥१॥ बारह सभाओंसे पूज्य वे भगवान् विपुलाचल पर्वत पर विराजमान हुए। राजा श्रेणिक उनकी स्तुतिके लिए गया, जाते समय उसने एक वृक्षके नीचे शिलातल पर विराजमान धर्मरुचि नामके मुनिराजको देखा। वे मुनिराज निस्तरङ्ग समुद्रके समान निश्चल थे, दीपकके समान निष्कम्प थे और जल सहित मेघके समान उन्नत थे, उन्होंने इन्द्रियोंके व्यापारको जीत लिया था, वे पर्यङ्कासनसे विराजमान थे, श्वासोच्छ्वासको उन्होंने थोड़ा रोक रक्खा था, और नेत्र कुछ बन्द कर लिये थे ।। २-४ ॥ इस प्रकार ध्यान करते हुए मुनिराजको देखकर श्रेणिकने उनकी बन्दना की परन्तु मुनिराजका मुख कुछ विकृत हो रहा था इसलिए उसे देखकर श्रेणिकको कुछ शङ्का उत्पन्न हो गई। वहाँ से चलकर वह भगवान महावीर जिनेन्द्रके समीप पहुँचा । वहाँ उसने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की फिर गौतमगणधरकी स्तुति कर उनसे पूछा कि हे प्रभो ! मैंने मार्गमें एक तपस्वी मुनिराज देखे हैं वे ऐसा ध्यान कर रहे हैं मानो उनका रूप धारण कर साक्षात् ध्यान ही विराजमान हो । हे नाथ ! वे कौन हैं ? यह जाननेका मुझे बड़ा कौतुक हो रहा है सो कृपा कर कहिये । इस प्रकार राजा श्रेणिकके द्वारा पूछे जाने पर वचनोंके स्वामी श्रीगणधर भगवान् इस प्रकार कहने लगे॥५-७॥
इसी भरत क्षेत्रके अङ्ग देशमें सर्व वस्तुओंसे सहित एक चम्पा नामकी नगरी है। उसमें राजा श्वेतवाहन राज्य करता था। इन्हीं भगवान् महावीर स्वामीप्ते धर्मका स्वरूप सुनकर उसका चित्त तीनों प्रकारके वैराग्यसे भर गया जिससे इसने विमलवाहन नामक अपने पुत्रके लिए राज्यका भार सौंपकर बहुत लोगोंके साथ संयम धारण कर लिया। बहुत दिन तक मुनियोंके समूहके साथ विहारकर अखण्ड संयमको धारण करते हुए वे मुनिराज यहाँ आ विराजमान हुए हैं। ये दश धर्मोमें सदा प्रेम रखते थे इसीलिए लोगोंके द्वारा धर्मरुचिके नामसे प्रसिद्ध हुए हैं सो ठीक ही है क्योंकि मित्रता वही है जो सर्व जीवों में होती है ॥८-१२॥ आज ये मुनि एक महीनेके उपवासके बाद नगरमें भिक्षाके लिए गये थे वहाँ तीन मनुष्य मिलकर इनके पास आये। उनमें एक मनुष्य मनुष्योंके लक्षण शास्त्रका जानकार था, उसने इन मुनिराजको देखकर कहा कि इनके लक्षण तो साम्राज्य पदवीके कारण हैं परन्तु ये भिक्षाके लिए भटकते फिरते हैं इसलिए शास्त्र में जो कहा है
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