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पञ्चसप्ततितमं पर्व जिनपूजां विधायानु वर्धमानविशुद्धिकः । सुरादिमलयोचानायानं वीरजिनेशितुः ॥७९॥ श्रुत्वा विभूतिमद्दत्वा सम्पूज्य परमेश्वरम् । महादेवीतनूजाय दस्खा राज्यं यथाविधि ॥ १८.॥ वसुन्धरकुमाराय वीतमोहो महामनाः । मातुलादिमहीपालैनन्दाव्यमधुरादिभिः ॥ ६८१॥ सर्वसङ्गपरित्यागात्संयम प्रत्यपद्यत । भुक्तभोगा हि निष्काक्षा भवन्ति भुवनेश्वराः ॥ ६८२।। सत्यन्धरमहादेव्या सहाष्टौ सदृशः स्रषाः। सथो गन्धर्वदत्ताधास्तासामपि च मातरः॥६८३॥ समीपे चन्दनाया जगृहुः संयम परम् । महानेकोऽभवद्धतुर्बहूनामर्थसिद्धये ॥ ६८४ ॥ भवता परिपृष्टोऽयं जीवन्धरमुनीश्वरः । महीयान् सुतपा राजन् सम्प्रति अतकेवली ॥ ६८५॥ घातिकर्माणि विध्वस्य जनित्वा गृहकेवली । साधं विहत्य तीर्थेशा तस्मिन्मुक्तिमधिष्ठिते ॥ ६८६ ॥ विपुलाद्रौ हताशेषकर्मा शर्माग्रमेष्यति । इष्टाष्टगुणसम्पूर्णो निष्ठितात्मा निरअनः ॥ ६८७ ॥ इत्याकर्ण्य सुधर्माख्यगणभृद्वचनामृतम् । 'प्रीतवान् श्रेणिकः कस्य न धर्मः प्रीतये भवेत् ॥ ६८८॥
शार्दूलविक्रीडितम् अन्यैर्यः समवाप पूर्वसुकृतात्कन्याष्टकं दुर्लभ
यः शत्रु पितृघातिनं रणमुखे लोकान्तरं प्रापयत् । यः प्रवज्य विभिन्नकर्मतिमिरोऽभासिष्ट मुकिभिया
तं वन्दे मुकुलीकृताञ्जलिरहं जीवन्धर श्रीवहम् ॥ ६८९॥
वसन्सतिलका विश्लेष्य षोडशदिनानि स मन्दसान
शावं विहाय करुणां विमतिः पितृभ्याम् ।
तदनन्तर उन्होंने जिन-पूजाकर अपनी विशुद्धता बढ़ाई फिर उसी सुरमलय उद्यानमें श्री वीरनाथ जिनेन्दका आगमन सना. सुनते ही बड़े वैभवके साथ वहाँ जाकर उन्होंने परमेश्वरकी पूजा की और गन्धर्वदत्ता महादेवीले पुत्र वसुन्धर कुमारके लिये विधिपूर्वक राज्य दिया। जिनका मोह शान्त हो गया है और जिनका मन अतिशय विशाल है ऐसे उन जीवन्धर महाराजने अपने मामा आदि राजाओं और नन्दाढ्य मधुर आदि भाइयोंके साथ सर्व परिप्रहका त्याग कर संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि जो राजा लोग भोग भोग चुकते हैं वे अन्तमें : रहित हो ही जाते हैं ।। ६७६-६८२ ।। सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाली गन्धर्वदत्ता आदि पाठों रानियोंने तथा उन रानियोंकी माताओंने सत्यन्धर महाराजकी महादेवी विजयाके साथ चन्दना आर्याके समीप उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि एक ही बड़ा पुरुष अनेक लोगोंकी अर्थ-सिद्धिका कारण हो जाता है ।। ६८३-६८४ ॥ सुधर्माचार्य राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् । तूने जिनके विषयमें पूछा था वे यही जीवन्धर मुनिराज हैं, ये बड़े तपस्वी हैं और इस समय अतकेवली हैं । घातिया कर्मोको नष्ट कर ये अनगारकेवली होंगे और श्री महावीर भगवानके साथ विहार कर उनके मोक्ष चले जानेके बाद विपुलाचल पर्वत पर समस्त कर्मोको नष्ट कर मोक्षका उत्कृष्ट सुख प्राप्त करेंगे-वहाँ ये अष्टगुणों से सम्पूर्ण, कृतकृत्य और निरञ्जन-कर्म-कालिमासे रहित हो जावेंगे॥६८५-६८७॥ इस प्रकार सुधमोचार्य गणधरके वचनामृतका पानकर राजा ने ही सन्तुष्ट हुआ सो ठीक ही है क्योंकि धर्म किसकी प्रीतिके लिए नहीं होता ? ॥६८८ ॥ जिन्होंने पूर्व पुण्य कर्मके उदयसे अन्य लोगोंको दुर्लभ आठ कन्याएँ प्राप्त की, जिन्होंने पिताका घात करने वाले शशुको युद्धमें परलोक पहुँचाया, जिन्होंने दीक्षा लेकर कर्म रूपी अन्धकारको नष्ट किया और जो मुक्ति रूपी लक्ष्मीसे सुशोभित हुए एसे लक्ष्मीपति श्री जीवन्धर स्वामीको मैं हाथ जोड़कर
१ पिप्रिये ल. । २ जीवन्धरस्वामिनम् ।
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