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षट्सप्ततितमं पर्व
तदा पूजां समायातैः श्रेणिको वृत्रहादिभिः । सह धर्मरुचेः कृत्वा पुनवरं समाश्रितः ॥ ३० ॥ भरते को पाश्चात्यः स्तुत्यः केवलवीक्षणः । इत्यप्राक्षीङ्गणी चैवं विवक्षुरभवत्तदा ॥ ३१ ॥ ब्रह्मकल्पाधिपो ब्रह्महृदयाख्य विमानजः । विद्युन्माली ज्वलन्मौलिः प्रियस्वायुक्तिदर्शने ॥ ३२ ॥ विद्युदादिप्रभावेगे देव्योऽन्याश्वास्य तद्वृतः । जिनमागत्य वन्दित्वा यथास्थानमुपाविशत् ॥ ३३ ॥ तं निरूप्य परिच्छेदोऽनेन स्यात्केवलस्रुतेः । तत्कथञ्चेद्वदिष्यामि दिनेऽस्मात्ससमे दिनात् ॥ ३४ ॥ ब्रह्मेन्द्रोऽयं दिवोऽभ्येत्य पुरेऽस्मिन्नेव वारणम् । सरः शालिवनं निर्धूमानलं प्रज्वलच्छिखम् ॥ ३५ ॥ थुकुमारसमानीयमानजम्बूफलानि च । स्वमानेतान् पुरः कुर्वशईदासाभिधानकात् ॥ ३६ ॥ इभ्यात्कृती सुतो भावी जिनदास्यां महाद्युतिः । जम्ब्वाख्योऽनावृताद्देवादाप्तपूजोऽतिविश्रुतः ॥ ३७ ॥ विनीतो यौवनारम्भेऽप्यनाविष्कृतविक्रियः । वीरः पावापुरे तस्मिन् काले प्राप्स्यति निर्वृतिम् ॥ ३८ ॥ तदैवाहमपि प्राप्य बोधं केवलसन्ज्ञकम् । सुधर्माख्यगणेशेन सार्धं संसारवह्निना ॥ ३९ ॥ करिष्यन्नतितानां ह्लादं धर्मामृताम्बुना । इदमेव पुरं भूयः सम्प्राप्यात्रैव भूधरे ॥ ४० ॥ स्थास्याम्येतत्समाकर्ण्य कुणिकचेलिनीसुतः । तत्पुराधिपतिः सर्वपरिवारपरिष्कृतः ॥ ४१ ॥ आगत्याभ्यर्च्य वन्दित्वा श्रुत्वा धर्मं ग्रहीष्यति । दानशीलोपवासादि साधनं स्वर्गमोक्षयोः ॥ ४२ ॥ जम्बूनामापि निर्वेदात्प्रब्रज्याग्रहणोत्सुकः । सहैवाल्पेषु वर्षेषु व्यतीतेषु वयं त्वया ॥ ४३ ॥
सर्वे दीक्षां ग्रहीष्याम इति बन्धुजनोदितम् । सोऽशक्नुचन्नराकर्तुमायास्यति पुरं तदा ॥ ४४ ॥ मोहं विधित्सुभिस्तस्य बन्धुभिः सुखबन्धनः । 'आरप्स्यते विवाहस्तैः श्रेयो विघ्ना हि बन्धवः ॥ ४५ ॥ उसी समय इन्द्र आदि देव उन धर्मरुचि केवली की पूजा करनेके लिए आये सो राजा श्रेणिकने भी उन सबके साथ उनकी पूजा की और फिर वह भगवान् वीरनाथ के पास आया ॥ ३० ॥ आते ही उसने गणधर स्वामी से पूछा कि हे प्रभो ! इस भरतक्षेत्रमें सबसे पीछे स्तुति करने योग्य केवलज्ञानी कौन होगा ? इसके उत्तर में गणधर कुछ कहना ही चाहते थे कि उसी समय वहाँ देदीप्यमान मुकुटका धारक विद्युन्मालो नामका ब्रह्मस्वर्गका इन्द्र आ पहुँचा, वह इन्द्र ब्रह्महृदय नामक विमानमें उत्पन्न हुआ था, प्रियदर्शना, सुदर्शना, विद्युद्वेगा और प्रभावेगा ये चार उसकी देवियाँ थीं, उन सभीके साथ वह वहाँ आया था । आकर उसने जिनेन्द्र भगवान्की बन्दना की । तदनन्तर यथास्थान बैठ गया । उसकी ओर दृष्टिपातकर गणधर स्वामी राजा श्रेणिकसे कहने लगे कि इसके द्वारा ही केवलज्ञानका विच्छेद हो जायगा अर्थात् इसके बाद फिर कोई केवलज्ञानी नहीं होगा । वह किस प्रकार होगा यदि यह जानना चाहते हो तो मैं इसे भी कहता हूँ, सुन । आजसे सातवें दिन यह ब्रह्मेन्द्र, स्वर्गसे च्युत होकर इसी नगरके सेठ दासकी स्त्री जिनदासीके गर्भ में आवेगा । गर्भमें आनेके पहले जिनदासी पाँच स्वप्न देखेगी - हाथी, सरोवर, चावलोंका खेत, जिसकी शिखा ऊपस्को जा रही है ऐसी धूम रहित अग्नि और देव कुमारोंके द्वारा लाये हुए जामुनके फल । यह पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली और कान्तिमान् होगा, जम्बूकुमार इसका नाम होगा, अनावृत देव उसकी पूजा करेगा, वह अत्यन्त प्रसिद्ध तथा विनीत होगा, और यौवन के प्रारम्भसे ही वह विकारसे रहित होगा । जिस समय भगवान् महावीर स्वामी मोक्ष प्राप्त करेंगे उसी समय मुझे भी केवलज्ञान प्राप्त होगा । तदनन्तर सुधर्माचार्य गणधरके साथ संसार रूपी अभिसे संतप्त हुए पुरुषोंको धर्मामृत रूपी जलसे आनन्दित करता हुआ मैं फिर भी इसी नगर में आकर विपुलाचल पर्वत पर स्थित होऊँगा । मेरे आनेका समाचार सुनकर इस नगरका राजा चेलिनीका पुत्र कुणिक सब परिवारके साथ आवेगा और पूजा वन्दनार तथा धर्मका स्वरूप सुनकर स्वर्ग और माक्षका साधनभूत दान, शीलोपवास आदि धारण करेगा ।। ३१-४२ ।। उसी समय जम्बूकुमार भी विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करनेके लिए उत्सुक होगा परन्तु भाई-बन्धु लोग उसे समझावेंगे कि थोड़े ही वर्षोंके व्यतीत होनेपर हम लोग भी तुम्हारे ही साथ दीक्षा धारण करेंगे। भाई बन्धुओंके इस कथनको वह टाल नहीं सकेगा और उस समय पुनः नगर में वापिस आ जावेगा । तदनन्तर भाई-बन्धु लोग उसे मोहमें
१ अरस्यते ल० ( १ ) ।
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