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महापुराणे उत्तरपुराणम पतिमहावकोऽवास्यकाबानादिलता प्रिया । तस्यै' तयोरई पालताऽभूवं सुतास्यया ॥१८॥ कदाचिम्मत्पिता मन्त्रसाधित खड़गमात्मनः । प्रमादाम करोति स्म करे तद्वन्ध्रवीक्षणात् ॥ १९॥ राक्षसेन हतस्तस्मारपुर शून्यमभूदिदम् । मस्सुता निविंशेपेति मां मरवामारयन् गतः ॥ १२०० भागन्तासौ पुननेंतुमिति तद्वचनश्रुतेः । वैश्यः खड्गं तमादाय गोपुरान्तहिंतः खगम् ॥ ११ ॥ मायान्तमवधीत्सोपि पठन् पचनमस्कृतिम् । न्यपतन्मेदिनीभागे समाहितमतिस्तदा ॥ १२२॥ श्रत्वा श्रीनागरगोऽपि नमस्कारपदावलीम् । मिथ्या मे दुष्कृतं सर्वमित्यपास्यायुधं निजम् ॥ १२३ ।। कुतो धर्मस्तवेत्येतममवीरसंबर्ण खगम् । सोऽपि श्रावक पुत्रोऽहं क्रोधादेतत्कृतं मया ॥ १२४ ॥ क्रोधान्मित्र भवेच्छन्नः क्रोधादो विनश्यति । क्रोधादाग्यपरिभ्रंशः क्रोधान्मोमुच्यतेऽमुभिः ॥ १२५॥ क्रोधान्मातापि सक्रोषा भवेरक्रोधादधोगतिः । ततः श्रेयोथिनां स्याज्यः स सदेति जिनोदितम् ॥२६॥ तजानमपि पापेन कोपेनाहं वशीकृतः । प्राप्तं तरफलमव परलोक किमुच्यते ॥ १२७ ॥ इत्यात्मानं विनिम्नं कुतस्तत्वं प्रजेः वा। इत्यवोचत्रभोगस्तं वैश्योऽप्येवमुदाहरत् ॥१२८॥ प्रापूर्णिकोई मां कन्यको शोकविहलाम् । स्वनयासम्म पास्यामीत्याविष्कृतपराक्रमः ॥ १२९ ॥ भावा धर्मभक्त सत् कृतवान्कार्यमीरशम् । त्यक्तं सबर्मवात्सल्यं सारं जैनेन्द्रशासने ॥ १३ ॥ जैनशासनमर्यादामतिलायतो मम । अपराध क्षमस्वेति तदुक्तमवगम्य सः ॥१३॥ किंकृतं भवता पूर्व मनुपार्जितकर्मणः । परिपाकविशेषोऽयमिति पसनममिक्रयाम् ॥ १३२॥
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बसाया है ।। ११४-११७ ॥ इस समय इस नगरका राजा महाबल है और उसकी रानीका नाम काश्चनलता है। मैं इन्हीं दोनोंकी पद्मलता नामकी पुत्री हुई थी॥ ११८ ।। मेरा पिता उस मंत्रसाधित तलवारको कभी भी अपने हायसे अलग नहीं करता था परन्तु प्रमादसे एक वार उसे अलग रख दिया और छिद्र देखकर राक्षसने उसे मार डाला जिससे यह नगर फिरसे सूना हो गया है। उसने मुझे अपनी पुत्रीके समान माना अतः वह मुझे यिना मारेही चला गया। अब वह मुमे लेनेके लिए फिर श्रावेगा। कन्याकी बात सुनकर वह वैश्य उस तलवारको लेकर नगरके गोपुर (मुख्य द्वार ) में जा छिपा और जब वह विद्याधर पाया तब उसे मार दिया। वह विद्याधर भी उसी समय पश्यनमस्कार मन्त्रका पाठ करता हुआ चित्त स्थिरकर पृथिवीपर गिर पड़ा ॥ ११९१२२॥ पञ्चनमस्कार पदको सुनकर नागदत्त विचार करने लगा कि हाय, मैंने यह सब पाप व्यर्थ ही किया है। उसने झट अपनी तलवार फेंक दी और उस घाव लगे विद्याधरसे पूछा कि तेरा धर्म क्या है ? इसके उत्तर में विद्याधरने कहा कि, मैं भी श्रावकका पुत्र हूँ, मैंने यह कार्य क्रोधसे ही किया है ।। १२३-१२४ ॥ देखो क्रोधसे मित्र शत्रु हो जाता है, क्रोधसे धर्म नष्ट हो जाना है, क्रोधसे राज्य भ्रष्ट हो जाता है और क्रोधसे प्राण तक छूट जाते हैं। क्रोधसे माता भी क्रोध करने लगती है और क्रोधसे अधोगति होती है इसलिए कल्याणकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको सदाके लिए क्रोध करना छोड़ देना चाहिये ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। मैं जानता हुश्रा भी क्रोधके यशीभूत हो गया था सो उसका फल मैंने अभी प्राप्त कर लिया अब परलोककी बान क्या कहना है। इस प्रकार अपनी निन्दा करता हुआ वह विद्याधर नागदत्तसे बोला कि श्राप यहाँ कहाँसे
आये हैं। इसके उत्तरमें वैश्यने कहा कि मैं एक पाहुना हूँ और इस कन्याको शोकसे विह्वल देखकर तेरे भयसे इसकी रक्षा करनेके लिए यह पराक्रम कर बैठा हूँ ।। १२५-१२६ ।। तू 'धर्म भक्त है। यह जाने बिना ही मैं यह ऐसा कार्य कर बैठा हूँ और मैंने जिनेन्द्रदेवके शासनमें कहे हुए सारभूत धर्म-यात्सल्यको छोड़ दिया है ।। १३०॥ हे भव्य ! जैन शासनकी मर्यादाका उल्लङ्घन करने वाले मेरे इस अपराधको तू क्षमा कर । नागदत्तकी कही हुई यह सब समझकर वह विद्याधर कहने लगा
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१ महाबलोप्यस्य इति कचित् । २ तामै तयोरहं इति कचित् । ३ पृष्ट्वेमा न० । ४ दास्यामो-ल. । ५ धर्मभाक्त्वं ते।
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