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पश्चसप्ततितम पर्व
५०१ सम्यग्दृष्टिहीतेग्वेषस्ते धर्मवान्धवः । इति तद्वचनं संम्यक्परीक्ष्य वणिजां वरः॥ २४३ ॥ सुतं समर्पयामास तस्मै 'तं सखिभिः समम् । क्षेत्रे बीजमिव स्थाने योग्य किं नार्पयेत्सुधीः ॥ २८५॥ 'स सइष्टिस्तमादाय निसर्गमतिविस्तृतिम् । अचिरेणैव कालेन विश्वविद्यान्तमानयत् ॥ २८५ ॥ कुमारोऽपि रविर्वाम्भोदान्ते विद्याभिरातत् । प्राप्तश्वर्यो द्विपो वानु सम्प्राप्तनवयौवनः ॥ २८६ ॥ उपाध्यायोऽपि कालान्तरेणापत्संयतः शिवम् । तस्काले कालकूटाख्यो मुख्यो वननिवासिनाम् ॥ २७ ॥ माकारं प्रपनो वा सूर्यरश्मिभयात्स्वयम् । अन्धकारः सकोदण्डशरहस्तं दुरीक्षकम् ॥ २८८ ॥ केनाप्यसझमापाते कटुकं वा महौषधम् । निघृणं बलमादाय विषाणोद्धोपभीषणम् ॥ २८९ ॥ तमालारामनिर्भासिभूगोचरमुपागतः । गोनो विघ्नं स साधूनां गोमण्डलजिघृक्षया ॥ २९० ॥ सो किंवदन्तीमाकर्ण्य कन्यां गोदावरी सतीम् । पुत्री गोपेन्द्रगोपश्रीसम्भूतां गोविमोक्षणम् ॥ २९१ ॥ विधास्यते ददामीति काष्टाङ्गारिकभूभुजा । घोषणां कारितां श्रुत्वा कालाङ्गारिकसङ्गतः ॥ २९२ ॥ जीवन्धरः सहायैः स्वैः परीतो ब्याधसनिधिम् । सम्प्राप्याकृष्टकोदण्डनिशातशरसन्ततिम् ॥ २५३ ॥ सन्दधत्सन्तति मुचल्लघु शिक्षाविशेषतः । धनुर्वेदसमादिष्टं स्थानकं सर्वमानजन् ॥ २९४ ॥ बाणपातान्परेषाञ्च वश्चयन्भक्षु सञ्चरन् । विकृन्तन् शत्रुबाणौघं नमस्त्राणि भीरुषु ॥ २९५ ॥ इति युध्वा चिरं व्याधान् जित्वा वा दुर्नयामयः । जयश्रिया समालीढः सर्वाशा यशसा भृशम् ॥२५६॥
परयम्छशिहंसांसकुन्दप्रसवहासिना। समागमत्पुरं चञ्चद्वैजयन्ती विराजितम् ॥ २९७ ॥ हुई महादाहको सहन नहीं कर सका इसलिए मैने यह ऐसा वेष धारण कर लिया है, मैं सम्यग्दृष्टि हूं,
धर्मबन्ध है। इस प्रकार तपस्वीके वचन सुनकर और अच्छी तरह परीक्षा कर सेठने उसक लिए मित्रों सहित जीवन्धरकुमारको सौंप दिया सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम खेतमें बीजकी तरह योग्य स्थानमें बुद्धिमान मनुष्य क्या नहीं अर्पित कर देता है ? अर्थात् सभी कुछ अर्पित कर देन है ॥२८१-२८४ ॥ उस सम्यग्दृष्टि तपस्वीने, स्वभावसे ही जिसकी बुद्धिका बहुत बड़ा विस्तार था ऐसे जीवन्धर कुमारको लेकर थोड़े ही समयमें समस्त विद्याओंका पारगामी बना दिया ॥२८५ ।। जिस प्रकार शरद् ऋतुमें सूर्य देदीप्यमान होता है और ऐश्वर्य पाकर हाथी सुशोभित होता है उसी प्रकार नव यौवनको पाकर जीवन्धरकुमार भी विद्याओंसे देदीप्यमान होने लगे ॥ २८६॥ वह उपाध्याय भी समयानुसार संयम धारण कर मोक्षको प्राप्त हुआ। अथानन्तर- उस समय कालकूट नामका एक भीलोंका राजा था जो ऐसा काला था मानो सूर्यकी किरणोंसे डरकर स्वयं अन्धकारने ही मनुष्यका आकार धारण कर लिया था, वह पशुहिंसक था और साधुओंके विघ्नके समान जान पड़ता था। जो धनुष-बाण हाथमें लिया है, जिसे कोई देख नहीं सकता, युद्ध में जिसे कोई सहन नहीं कर सकता, जो महौषधिके समान कटुक है, दयारहित है और सींगोंके शब्दोंसे भयंकर हे ऐसी सेना लेकर वह कालकूट गोमण्डलके हरण करनेकी इच्छासे तमाखुओंके वनसे सुशोभित नगरके बाह्य मैदानमें आ डटा ।। २८७-२६० ।। इस समाचारको सुनकर काष्टाङ्गारिक राजाने घोषणा कराई कि मैं गायों छुड़ानेवालेके लिए गोपेन्द्रकी स्त्री गोपश्रीसे उत्पन्न गांदावरी नामकी उत्तम कन्या दूंगा। इस घोषणाको सुनकर जीवन्धर कुमार काष्ठाङ्गारिकके पुत्र कालाङ्गारिक तथा अपने अन्य मित्रोंसे युक्त होकर उस कालकूट भीलके पास पहुंचे। वहाँ जाकर उन्होंने अपना धनुप चढ़ाया, उसपर तीक्ष्ण बाण रक्खे, वे अपनी विशिष्ट शिक्षाके कारण जल्दी-जल्दी बाण रखते और छोड़ते थे, धनुर्वेदमें बतलाये हुए सभी पैंतरा बदलते थे, दूसरोंकी बाण-वर्षाको बचाते हुए जल्दी-जल्दी घूमते थे, शत्रुओंके बाणों के समूहको काटते थे और कायर लोगोंपर अत्र छोड़नेसे रोकते थे, अर्थान् कायर लोगोंपर अत्रोंका प्रहार नहीं करते थे। इस तरह जिस प्रकार नय मिथ्या नयोंको जीत लेता है उसी प्रकार उन्होंने बहुत देर तक युद्ध कर भीलोंको जीत लिय । जयलक्ष्मीने उनका आलिङ्गन किया और वे चन्द्रमा, हंस, तूल तथा
, हंस, तूल तथा कुन्दके फूलके समान सुशोभित यश के द्वारा समस्त दिशाओंको व्याप्त करते हुए फहराती हुई पताकाओंसे सुशोभित नगरमें प्रविष्ट हुए ॥ २६१-२६७ ॥
१ःख०।२ सम्यन्दष्टिस्तमा-म० ।
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