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महापुराणे उत्तरपुराणम् देहचूते कुमारस्य शौर्यादिप्रसवाचिते । जननेत्रालयः पेतुः कीतिगन्धावकर्षिताः॥१९८॥ तदा कुमारसम्देशादेकवाक्येन विटसुताः। गोविमोक्षणमेतेन कृतं युवेति भूपतिम् ॥ २९९ ॥ विज्ञाप्यादापयन् कन्यां नन्दान्याय पुरोदिताम् । गोदावरी विवाहेन विचित्राः कार्यवृरायः॥..॥ अथात्र भारते खेचराद्रौ दक्षिणभागगम् । गगनाच्छ्रीरिवाभाति पुरं गगनवल्लभम् ॥ ३०१ ॥ तरपुराधिपतिः खेचरेन्द्रो गरुडवेगकः । दायादास्ताभिमानः सनत्नद्वीपे परं पुरम् ॥ ३०२॥ रमणीयाभिधं कृत्वा नान्नादौ मनुजोदये। निविष्टवान्पुरेऽस्यासीद्धारिगी प्राणवल्लभा ॥ ३०३ ॥ सत्सुतामुपवासेन परिम्लानशरीरिकाम् । गन्धर्वदत्तामन्येचः पूजयित्वा जिनेश्वरान् ॥ ३०४॥ शेषमालां समादाय दातुं स्वस्मै समागताम् । आपूर्णयौवना वीक्ष्य कस्मै देयेयमित्यसौ ॥ ३.५ ॥ अपरछत्खेचराधीशो 'मन्त्रिणं मतिसागरम् । सोऽपि प्राक्छूतमिस्याह सिद्धादेशमपारधीः ॥ ३०६ ॥ जिनेन्द्रानहमन्येधुर्वन्दितं मन्दरं गतः । नन्दने पूर्वदिग्भागे वने जिननिकेतनम् ॥ ३०७॥ भक्तया प्रदक्षिणीकृस्य स्तुत्वा विधिपुरस्सरम् । तत्रस्थचारणं नत्वा मत्यन्तविपुलादिकम् ॥ ३०८॥ श्रस्वा धर्म जगस्पूज्य सती मत्स्वामिनः सुता। कस्य गन्धर्वदत्ताख्या भोगभोग्या भविष्यति ॥ ३०९ ॥ इत्यप्राक्षं तदावोचत्सोऽप्येवमवधीक्षणः । द्वीपेऽस्मिन्भारते हेमाङ्गददेशे मनोहरे ॥ ३१०॥ राजा राजपुरे सत्यधरः सत्यविभूषणः । विजयास्य महादेवी तयोः श्रीमान्सुधीः सुतः॥ ३११॥
वीणास्वयंवरे तस्य दत्ता भार्या भविष्यति । इति मन्त्रिवचः श्रवा खगेशः किश्चिदाकुलः ॥ ३१२ ॥ उस समय शूरवीरता आदि गुण रूपी फूलोंसे सुशोभित कुमारके शरीर-रूपी आमके वृक्षपर कीर्ति रूपी गन्धसे खिंचे हुए मनुष्यों के नेत्ररूपी भौंरे पड़ रहे थे ॥ २६८।। तदनन्तर जीवन्धर कुमारने सब वैश्यपुत्रोंसे कहा कि तुम लोग एक स्वरसे अर्थात् किसी मतभेदके विना ही राजाप्ते कहो कि इस नन्दाढ्यने ही युद्ध कर गायोंको छुड़ाया है। इस प्रकार राजाके पास संदेश भेजकर पहले कही हुई गोदावरी नामकी कन्या विवाहपूर्वक नन्दाढ्यके लिए दिलवाई । सो ठीक ही है क्योंकि कार्योंकी प्रवृत्ति अनेक प्रकारकी होती है। अर्थात् कोई कार्यको बिना किये ही यश लेना चाहते हैं और कोई कार्य करके भी यश नहीं लेना चाहते ॥ २६६-३००॥ .
अथानन्तर-इसी भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में एक गगनवल्लभ नामका नगर है जो आकाशसे पड़ती हुई श्रीके समान जान पड़ता है । उसमें विद्याधरोंका स्वामी गरुड़वेग राज्य करता था। दैवयोगसे उसके भागीदारोंने उसका अभिमान नष्ट कर दिया इसलिए वह भागकर रत्नद्वीपमें चला गया और वहाँ मनुजोदय नामक पर्वत पर रमगीय नामका सुन्दर नगर बसा कर रहने लगा। उसकी रानीका नाम धारिणी था ॥ ३०१-३०३ ।। किसी दिन उसकी गन्धर्वदत्ता पुत्रीने उपवास किया जिससे उसका शरीर मुरझा गया। वह जिनेन्द्र भगवान्की पूजा कर शेष बची हुई माला लेकर पिताको देनेके लिए गई। गन्धर्षदत्ता पूर्ण यौवनवती हो गई थी। उसे देख पिताने अपने मतिसागर नामक मन्त्रीसे पूछा कि यह कन्या किसके लिए देनी चाहिये। इसके उत्तरमें अपार बुद्धिके धारक मन्त्रीने भविष्यके ज्ञाता मुनिराजसे पहले जो बात सुन रखी थी वह कह सुनाई ।। ३०४-३०६ ।। उसने कहा कि हे राजन् ! किसी एक दिन मैं जिनेन्द्रः भगवान्की वन्दना करनेके लिए सुमेरु पर्वतपर गया था। वहाँ नन्दन वनकी पूर्वा दिशाके वनमें जो जिन-मन्दिर है उसकी भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा देकर तथा विधिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति कर मैं बैठा ही था कि मेरी दृष्टि वहाँ पर विराजमान विपुलमति नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिराजपर पड़ी। मैंने उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मका उपदेश सुना। तदनन्तर मैंने पूछा कि हे जगत्पूज्य । हमारे स्वामीके एक गन्धर्वदत्ता नामकी पुत्री है वह किसके भोगने योग्य होगी ? मुनिराज अवधिज्ञानी थे अतः कहने लगे कि इसी भरतक्षेत्रके हेमानन्द देशमें एक अत्यन्त सुन्दर राजपुर नामका नगर है। उसमें सत्यरूपी आभूषणसे सुशोभित सत्यन्धर नामका राजा राज्य करता है । उसकी महारानीका नाम विजया है उन दोनों के एक बुद्धिमान पुत्र उत्पन्न हुआ है। वीणाके स्वयंवरमें वह
१ मन्त्रिस्य
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