Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 543
________________ पञ्चसप्ततितम पर्व ५१५ सामभेदविधामज्ञाः प्रवेष्टुं हृदयं शनैः। किमेव तिष्ठसि स्त्राहि परिधत्स्व विभूषणः ॥ ४१६ ॥ अलङ्कर सज धेहि भुक्ष्वाहारं मनोहरम् । बहि विस्रब्धमस्माभिः श्रीचन्द्रे सुखसङ्कथाम् ॥ ४९७ ॥ मनुष्यजन्म सम्प्राप्तं दुःखेनानेकयोनिषु । दुर्लभं भोगवैमुख्यादेतन्मानीनशो वृथा ॥ ४९८ ॥ वनराजात्परो नास्ति परो रूपादिभिर्गुणैः । लोकेऽस्मिन्लोचने सम्यक्तवोन्मील्य न पश्यसि ॥ ४९९ ॥ लक्ष्मीरिवादिचक्रेशं भूषेवाभरणद्रमम् । सम्पूर्णेन्दुमिव ज्योत्स्ना वनराजमुपाश्रय ॥ ५००॥ प्राप्य चूडामणि मूढः को नामात्रावमन्यते । इत्यन्यैश्च भयप्रायैर्वचनैरकदर्थयन् ॥ ५० ॥ तदुपद्रवमाकर्ण्य प्रच्छन्नहरिविक्रमः । विपचिनिग्रहेणासां कन्यायाः प्रतिपत्स्यते ॥ ५०२ ॥ कदाचिदिति सञ्चिन्स्य निर्भय॑ वनराजकम् । तस्या निजतनूजाभिः सहवासं चकार सः ॥ ५०३ ॥ दृढमित्रादयः सर्वे तदा सम्प्राप्य बान्धवाः । समद्धबलसम्पन्नास्तस्थुरावेष्ट्य तत्पुरम् ॥ ५०४ ॥ युयुत्सवो विपक्षाश्च जीवन्धरकुमारकः । तदृष्ट्वा स्पष्टकारुण्यो युद्धं बहुजनान्तकृत् ॥ ५०५ ॥ किमनेनेति यक्षेशं स्वं सुदर्शनमस्मरत् । अनुस्मरणमात्रेण यक्षोप्यानीय कन्यकाम् ॥ ५०६ ॥ कुमारायार्पयामास कस्याप्यकृतपीडनम् । संसाधयन्ति कार्याणि सोपायं पापभीरवः ॥ ५० ॥ ते सर्वे सिद्धसाध्यस्वायुद्धं संहार्य सम्मुखम् । नगरस्यागमतान्नन्वसौ वनराजकः ॥ ५०८ ॥ युयुत्सया यशै वीक्ष्य तं यक्षो दुष्टचेतसम् । परिगृह्य हठात्सद्यः कुमाराय समर्पयत् ॥ ५०९ ॥ वन्दीकस्य कुमारोऽपि वनराजं निविष्टवान् । ससेनः सरसि श्रीमान्सेनारम्याभिधानके ॥ ५१०॥ दूतियाँ बुलाकर उनसे कहा कि तुम लोग किसी भी उपायसे इसे मुझपर प्रसन्न करो । वनराजकी प्रेरणा पाकर वे दूतियाँ श्रीचन्द्राके पास गई और साम-भेद आदि अनेक विधानोंको जाननेवाली वे दूतियाँ धीरे-धीरे उसके हृदयमें प्रवेश करनेके लिए कहने लगी कि 'हे श्री चन्द्रे ! तू इस तरह क्यों बैठी है ? स्नान कर, कपड़े पहिन, आभूषणोंसे अलंकार कर, माला धारण कर, मनोहर भोजन कर और हम लोगोंके साथ विश्वास पूर्वक सुखकी कथाएँ कह ।। ४६४-४६७॥ अनेक योनियोंमें परिभ्रमण करते-करते यह दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाया है इसलिए इसे भोगोपभोगकी विमुखतासे व्यर्थ ही नष्ट मत कर ॥ ४६८॥ इस संसारमें रूप आदि गुणोंकी अपेक्षा वनराजसे बढ़कर दूसरा वर नहीं है यह तू अपने नेत्र अच्छी तरह खोलकर क्यों नहीं देखती है ?॥४६६॥ जिस प्रकार भरत चक्रवर्तीके साथ लक्ष्मी रहती थी, श्राभूषण जातिके वृक्षोंके समीप शोभा रहती है और पूर्ण चन्द्रमाके साथ चाँदनी रहती है उसी प्रकार तू वनराजके समीप रह । चूड़ामणि रत्नको पाकर ऐसा कौन मुर्ख होगा जो उसका तिरस्कार करता हो, इस प्रकारके तथा भय देनेवाले और भी वचनोंसे उन दूतियोंने श्रीचन्द्राको बहुत तङ्ग किया ॥५००-५०१॥ वनराजके पिता हरिविक्रमने गुप्त रीतिसे कन्याका यह उपद्रव सुनकर विचार किया कि ये दूतियाँ इसे तंग करती हैं इसलिए संभव है कि कदाचित् यह कन्या श्रात्मघात कर ले इसलिए उसने वनराजको डाँटकर वह कन्या अपनी पुत्रियोंके साथ रख ली ॥५०२-०३ ।। इधर हदमित्र आदि सब भाई-बन्धुओंने मिलकर सेना तैयार कर ली और उस सेनाके द्वारा वनराजका नगर घेरकर सब आ डटे ।। ५०४।। उधरसे विरोधी दलके लोग भी युद्ध करनेकी इच्छासे बाहर निकले। यह देख दयालु जीवन्धर कुमारने विचार किया कि युद्ध अनेक जीवोंका विघात करनेवाला है इसलिए इससे क्या लाभ होगा? ऐसा विचार कर उन्होंने उसी समय अपने सुदर्शन यक्षका स्मरण किया। स्मरण करते ही यक्षने किसीको कुछ पीड़ा पहुँचाये बिना ही वह कन्या जीवन्धर कुमारके लिए सौंप दी सो ठीक ही है क्योंकि पापसे डरनेवाले पुरुष योग्य उपायसे ही कार्य सिद्ध करते हैं ।। ५०५-५०७॥ दृढ़मित्र आदि सभी लोग कार्य सिद्ध हो जानेसे युद्ध बन्द कर नगरकी ओर चले गये परन्तु वनराज युद्धकी इच्छासे वापिस नहीं गया। यह देख, यक्षने उसे दुष्ट अभिप्रायवाला समझकर जबर्दस्ती पकड़ लिया और जीवन्धर कुमारको सौंप दिया। श्रीमान् जीवन्धर कुमार भी वनराजको कैदकर सेनाके साथ सेनारम्य नामके सरोवरके किनारे ठहर १दुःखमुख्या-ल.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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