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महापुराणे उत्तरपुराणम् भरिक्षयाह्वयः शत्रुमर्दनोऽतिबलोऽप्यमी। भृत्यास्तस्यात्मजस्यापि लोहजडः सखापरः ॥१८॥ श्रीषेणश्चान्यदा गस्वा पुरं तौ तहनान्तरे । रममाणां समालोक्य श्रीचन्द्रां चन्द्रिकोपमाम् ॥ ४८२॥ प्रशस्य यान्तौ वीक्ष्याम्बु पातं यातं तुरङ्गमम् । रक्षकाभिभवानीत्वा दत्वास्मै तोषमापतुः॥ १८३॥ हरिविक्रमतः पश्चात्तावभ्येत्य हितैषिणौ । मिथो 'वनेचरेशात्मजस्यान्यायानुसारिणः ॥ ४८४ ॥ वनराजस्य तत्कान्तारूपकान्त्यादिसम्पदम् । सम्यग्वर्णयतः स्मैतच्छ्रुत्वा तदभिलाषिगा ॥ ४८५॥ सुवर्ण तेजसा प्रीतिमतास्यां पूर्वजन्मनि । सा केनापि प्रकारेण मां प्रत्यानीयतामिति ॥ ४८६ ॥ प्रेषितावनु तेनेत्वा महाभटपरिष्कृतौ । तरकन्याशयनागारं ज्ञात्वा कृतसुरङ्गको ॥ ४८७ ॥ निष्कृष्य कन्यां श्रीषेणलोहजो सपौरुषौ । गतौ कन्या गृहीत्वेति तस्मिन्लिखितपत्रकम् ॥ ४८८ ॥ सुरङ्गे समवस्थाप्य वनराजस्य सनिधिम् । रजन्या सेन्दुरेखौ वा प्रस्थितौ मन्दभूमिजौ । ४८९ ॥ आदित्योद्मवेलायां विदित्वा लेखवाचनात् । कन्यापहरणं तस्या भ्रातरौ नृपचोदितौ ॥ ४९.॥ अनुसृत्य द्रतं ताभ्यां युध्यमानी निरीक्ष्य सा । मित्रान्तकिधर यक्षमित्रं चाकुलिताशया ॥ ४९१ ॥ श्रीचन्द्राहं न भोक्ष्येऽस्मनगरास्मजिनालयम् । अदृष्टा किञ्चिदप्यस्मिन्निति मौनं समादधे ॥ १९ ॥ सखायौ वनराजस्य विनिर्जित्य नृपात्मजौ। नीत्वा तां निजमित्राय ददतुः प्राप्तसम्मदौ ॥ ४९३ ॥ सुविरको वनेशोऽसौ प्रत्यात्मान विबुध्य ताम् । प्रौढास्तद्योजनोपाये स्वाः समाहुय दूतिकाः ॥ ४९४ । २कुरुते मां मयि प्रीतामुपायरित्यभाषत । ताश्च तत्प्रेषणं लब्ध्वा श्रीचन्द्राभ्याशमागताः ॥ ४९५ ।।
सैन्धव, अरिञ्जय, शत्रुमर्दन और अतिवल ये उस भीलके सेवक थे। लोहजङ्घ और श्रीषेण ये दोनों उसके पुत्र वनराजके मित्र थे। किसी एक दिन लोहजङ्घ और श्रीषेण दोनों ही हेमाभनगरमें गये। वहाँ के वनमें चाँदनीके समान श्रीचन्द्रा खेल रही थी। उसे देखकर उन दोनोंने उसकी प्रशंसा की। वहींपर पानी पीनेके लिए एक घोड़ा आया था उसे देख इन दोनोंने उस घोड़ेके रक्षकका तिरस्कार कर वह घोड़ा छीन लिया और ले जाकर हरिविक्रम भीलको देकर उसे सन्तुष्ट किया। तदनन्तर हितकी इच्छा रखनेवाले वे दोनों मित्र हरिविक्रमके पाससे चलकर अन्याय मार्गका अनुसरण करनेवाले उसके पुत्र वनराजके समीप गये और श्रीचन्द्राके रूप कान्ति आदि सम्पदाका अच्छी तरह वर्णन करने लगे। यह सुनकर वनराजकी उसमें अभिलाषा जागृत हो गई। वनराज पूर्वभवमें सुवर्णतेज था और श्रीचन्द्रा अनुपमा नामकी कन्या थी। उस समय सुवर्णतेज अनुपमाको चाहता था परन्तु उसे प्राप्त नहीं हो सकी थी। उसी अनुरागसे उसने अपने दोनों मित्रोंसे कहा कि किसी भी उपायसे उसे मेरे पास लाओ॥ ४७८-४८६ ॥ कहा ही नहीं, उसने बड़े-बड़े योद्धाओंके साथ उन दोनों मित्रोंको भेज भी दिया। दोनों मित्रोंने हेमाम नगरमें जाकर सबसे पहले कन्याके सोनेके घरका पता लगाया और फिर सुरङ्ग लगाकर कन्याके पास पहुँचे। वहाँ जाकर उन दोनोंने इस आशयका एक पत्र लिखकर सुरङ्गमें रख दिया कि पुरुषाथी श्रीषेण तथा लोइजङ्घ कन्याको लेकर गये हैं और जिस प्रकार रात्रिके समय चन्द्रमाकी रेखाके साथ शनि और मङ्गल जाते हैं उसी प्रकार हम दोनों कन्याको लेकर वनराजके समीप जाते हैं । यह पत्र तो उन्होंने सुरङ्गमें रक्खा और श्रीचन्द्राको लेकर चल दिये। दूसरे दिन सूर्योदयके समय उक्त पत्र बाँचनेसे कन्याके हरे जानेका समाचार जानकर राजाने कन्याके दोनों भाइयोंको उसे वापिस लानेके लिए प्रेरित किया। दोनों भाई शीघ्र ही गये और उनके साथ युद्ध करने लगे। अपने भाई किन्नरमित्र और यक्षमित्रको युद्ध करते देख श्रीचन्द्रा को बहुत दुःख हुआ इसलिए उसने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक मैं अपने नगरके भीतर स्थित अपने जिनालयके दर्शन नहीं कर लूँगी तब तक कुछ भी नहीं खाऊँगी। ऐसी प्रतिज्ञा लेकर उसने मौन धारण कर लिया ।। ४८७-४६२ ।। इधर वनराजके मित्र श्रीषेण और लोहजङ्घने युद्ध में राजाके पुत्रोंको हरा दिया और बहुत ही प्रसन्न होकर वह कन्या वनराजके लिए सौंप दी ।। ४६३ ।। जब वनराजने देखा कि श्रीचन्दा मुझसे विरक्त है तब उसने उसके साथ मिलानेवाले उपाय करने में चतर अपनी
१ वनचरेणात्मजस्या-ल० । २ इमा मयि प्रीतां कुरुत इति भावः । कुर्वीतेमाल.।
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