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महापुराणे उत्तरपुराणम् इतस्तृतीये कन्यैषा बभूव किल जन्मनि । देशे हेमानन्दे राजपुरे वैश्यकुलाग्रणीः ॥ १५ ॥ रत्नतेजाः प्रिया तस्य रत्नमाला तयोः सुता । सुरूपानुपमा नाम्ना नाम्नैव न गुणैरपि ॥ ४५ ॥ तस्मिन्नेव पुरे वंशे विशां कनकतेजसः। तनूजश्चन्द्रमालायामभवदुर्विधो विधीः ॥ ४५२ ॥ सुवर्णतेजा नाम्नाभूतस्मै प्राक्परिभाषिताम् । पुनस्तदवमानेन तन्मातापितरौ किल ॥ ४५३ ॥ समश्राणयतां वैश्यपुत्राय मणिकारिणे । गुणमित्राय तत्रेयं स्तोकं कालमगात्सुखम् ॥ ४५४ ॥ कदाचिजलयात्रायामम्भोनिधिनदीमुखात् । निर्गमे विषमावर्ते गुणमिने मृतिगते ॥ ४५५ ॥ स्वयं चेत्वा प्रदेशं तं मृत्युमेषा समाश्रयत् । ततो राजपुरे गन्धोत्कटवैश्यसुधालये ॥ ४५६ ॥ पतिः पवनवेगाख्यो रतिवेगेयमप्यभूत् । पारावतकुले द्वन्द्वं तद्बालाक्षरशिक्षणे ॥ ४५७ ॥ स्वयं चैत्याक्षराभ्यासं गृहिणोः श्रावकवतम् । तयोईष्वा प्रशान्तोपयोगं जन्मान्तरागतात् ॥ ४५८ ॥ स्नेहादन्योन्यसंसक्त सुखं तत्रावसच्चिरम् । सुवर्णतेजास्तबद्धवैरेण पुरुदंशताम् ॥ ४५९ ॥ मृत्वा सम्प्राप्य तद्वन्द्वं दृष्टा कापि यदृच्छया। अग्रहीद्रतिवेगाख्यां' राहुतिमिवैन्दवीम् ॥ ४६०॥ जातकोपः कपोतोऽमुं नखपक्षप्रताडनैः । तुण्डघातैश्च 'हत्वाशु निजभामाममूमुचत् ॥ ४६१ ॥ कदाचिचत्पुर प्रत्यासमभूधबिलान्तरे । पाशे विरचिते पापैः कपोते पतिते सति ॥ ४६२॥ स्वयं गृहं समागत्य रतिवेगात्मनो मृतिम् । पत्युस्तुण्डेन संलिख्य तान्सर्वानवबोधयत् ॥ ४६३ ॥ तद्वियोगमहादुःखपीडिता विगतासुका । श्रीचन्द्राख्याजनिष्टेयमभीष्टा भवतोः सुता ॥ ४६४ ॥
इस जन्मसे. पहले तीसरे जन्मकी बात है तब इसी हेमाङ्गद देशके राजपुर नगरमें वैश्यकुल शिरोमणि रजतेज नामका एक सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम रत्नमाला था। यह कन्या उन दोनोंकी अनुपमा नामकी अतिशय रूपवती पुत्री थी। अनुपमा केवल नामसे ही अनुपमा नहीं थी किन्तु गुणोंसे भी अनुपमा ( उपमा रहित) थी। उसी नगरमें वैश्यवंशमें उत्पन्न हुए कनकतेजकी स्त्री चन्द्रमालासे उत्पन्न हुआ सुवर्णतेज नामका एक पुत्र था जो कि बहुत ही बुद्धिहीन और भाग्यहीन था। अनुपमाके माता-पिताने पहले इसी सुवर्णतेजको देनी कही थी परन्तु पीछे उसे दरिद्र और मूर्खताके कारण अपमानितकर जवाहरातका काम जाननेवाले गुणमित्र नामक किसी दुसरे वैश्य-पुत्रके लिए दे दी। अनुपमा उसके पास कुछ समय तक सुखसे रही ॥४५०-४५४ ।। किसी एक समय गुणमित्र जलयात्राके लिए गया था अर्थात् जहाजमें बैठकर कहीं गया था परन्तु समुद्र में नदीके मुँहानेसे जब निकल रहा था तब किसी बड़ी भँवरमें पड़कर मर गया। उसकी स्त्री अनुपमाने जब यह खबर सुनी तब यह भी स्वयं उस स्थानपर जाकर डूब मरी। तदनन्तर उसी राजपुर नगरके गन्धोत्कट सेठके घर गुणमित्रका जीव पवनवेग नामका कबूतर हुआ और अनुपमा रतिवेगा नामकी कबूतरी हुई। गन्धोत्कटके घर उसके बालक अक्षराभ्यास करते थे उन्हें देखकर उन दोनों कबूतर-कबूतरीने भी अक्षर लिखना सीख लिया था। गन्धोत्कट और उसकी स्त्री, दोनों ही श्रावकके व्रत पालन करते थे इसलिए उन्हें देखकर कबूतर-कबूतरीका भी उपयोग अत्यन्त शान्त हो गया था। इस प्रकार जन्मान्तरसे आये हुए नहस व दोनों परस्पर मिलकर वहाँ तक सुखसे रहे आये । सुवर्णतेजको अनुपमा नहीं मिली थी इसलिए वह गुणमित्र और अनुपमासे बैर बाँधकर मरा तथा मरकर बिलाव हुश्रा । एक दिन वह कबूतरोंका जोड़ा कहीं इच्छानुसार क्रीड़ा कर रहा था उसे देखकर उस बिलावने रतिवेगा नामकी कबूतरीको इस प्रकार पकड़ लिया जिस प्रकार कि राहु चन्द्रमाके विम्बको ग्रस लेता है ।। ४५५-४६०॥ यह देख कबूतरको बड़ा क्रोध आया, उसने नख और पड़ोंकी ताड़नासे तथा चोंचके आघातसे बिलावको मारकर अपनी स्त्री छड़ा ली ॥४६१॥ किसी एक समय उसी नगरके समीपवर्ती पहाड़की गुफाके समीप पापी लोगोंने एक जाल बनाया था, पवनवेग कबूतर उसमें फँसकर मर गया तब रतिवेगा कबूतरीने स्वयं घर आकर
और चोंचसे लिखकर सब लोगोंको अपने पतिके मरनेकी खबर समझा दी।४६२-४६३ ॥ तदन न्तर उसके वियोगरूपी भारी दुःखसे पीड़ित होकर वह कबूतरी भी मर गई और यह आप दोनोंकी
१ वेगां तां ल०।२ निजभार्याममूमुचत् म०।३ तत्पुरे म०। ४ तत्सर्वानप्यबो-ल०।
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